वोट बैंक की राजनीति के कारण जब पश्चिम बंगाल सरकार ने माओवादियों के सामने एक तरह से समर्पण ही कर दिया, तब वह केंद्रीय बलों को वहां हालात संभालने के लिए बुलाने को बाध्य हुई, ताकि उसकी कुछ तो विश्वसनीयता कायम रह सके। बेशक, माओवाद की समस्या से केंद्र सरकार द्वारा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) पर सिर्फ प्रतिबंध लगाने से नहीं निपटा जा सकता। पर सवाल यह है कि जब दशकों से पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी का शासन रहा है, तो उसके नेताओं ने वे कड़े फैसले क्यों नहीं किए जिनसे माओवाद से सबसे बेहतर ढंग से निपटा जा सकता था। अगर कड़े उपायों की जगह राजनीतिक प्रयासों से समस्या सुलझाई जा सकती थी, तो ऐसा पहले ही किया जाना चाहिए था। अब केंद्र के उपायों के खिलाफ बयानबाजी करके लोगों को भरमाने से बाज आना चाहिए। ये बातें सिर्फ लालगढ़ या पश्चिम बंगाल पर ही लागू नहीं होतीं, बल्कि झारखंड, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश आदि उन राज्य सरकारों पर भी लागू होती हैं, जो नक्सल समस्या से प्रभावित हैं। राज्य सरकारों को इस बारे में दोहरा रवैया अपनाने और देखो व इंतजार करो की नीति से भी दूर रहने की जरूरत है। मोटे तौर पर देश की एकता-अखंडता को प्रभावित करने वाले मुद्दे पर कोई समझौता नहीं होना चाहिए।
उल्लेखनीय है कि कुछ समय पहले प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने नक्सली हिंसा को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था। हाल की नक्सली कार्रवाइयों को देखते हुए यह बात एकदम सही लगती है। हालांकि इस आंदोलन की शुरुआत के साथ ही तत्कालीन सरकार ने इसके खतरों को भांप लिया था। 70 के दशक में सरकार ने अभियान चलाकर नक्सलियों की कमर तोड़ दी थी, उसके बाद वे छोटे-छोटे गुटों में बिखर गए। इनमें पीपल्स वार ग्रुप और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर प्रमुख थे। वर्ष 2004 में इनका आपस में विलय हो गया और इन्होंने मिलकर सीपीआई (माओवादी) का गठन किया। ये गरीबों और आदिवासियों की मदद करने की आड़ में राज्य सत्ता को लगातार चुनौती दे रहे हैं। वे खास तौर से पुलिस और सुरक्षाबलों को निशाना बनाते रहे हैं। इस साल मई तक 162 सुरक्षाकर्मियों की मौत नक्सली हमले में हो चुकी है। पिछले साल नक्सली हमले में 231 लोगों ने अपनी जान गंवाई थी।
नक्सलवाद या माओवाद के बढ़ते खतरे के बावजूद नक्सलियों से निपटने की स्पष्ट नीति का अभाव नजर आता रहा है। इस मामले में हर राजनीतिक दल अपना अलग-अलग राग अलापता रहा है। चुनाव के समय सियासी पार्टियां किसी से भी सहयोग लेने से नहीं हिचकतीं। वोट के लिए वे माओवादियों से भी हाथ मिलाने को तैयार रहती हैं। नक्सली हिंसा से निपटने में देश के वर्तमान कानून काम नहीं आ रहे। ये कानून न सिर्फ अपर्याप्त हैं बल्कि उन्हें अमल में लाना भी संभव नहीं है। वास्तव में आज कोई कारगर कानून ही नहीं है, जो नक्सली हिंसा से निपट सके।
कानून बनाते समय तात्कालिक परिस्थितियों का ही ध्यान रखा जाता है, भविष्य पर नजर नहीं रहती। आज के कई कानून 1863 में बने हुए हैं। उस वक्त शायद ही किसी ने सोचा होगा कि एक दिन देश के सामने नक्सली हिंसा का इतना भयावह संकट पैदा होगा और वे कुछ क्षेत्रों में सरकार के समानांतर अपनी सत्ता भी कायम कर लेंगे।
नक्सली हिंसा के मामले में कानूनी कार्रवाई तभी संभव है, जब उनकी हिंसा के कुछ प्रत्यक्षदर्शी सामने आएं। पर फिलहाल तो ऐसे गवाहों का मिलना असंभव है, जो कोर्ट के सामने आकर सारी बात बताएं और लंबे समय तक निरंतर मुकदमे की कार्यवाही में सहयोग करते रहें।
देश में एक तबका ऐसा भी है जो कहता है कि नक्सली हिंसा को ध्यान में रखकर कानून बनाने से भी इस पर रोक नहीं लग पाएगी। यह तर्क अमर्यादित और बचकाना है। देश में डकैती, बलात्कार, दहेज हत्या और रैश ड्राइविंग को रोकने के लिए कानून बने हुए हैं फिर भी इन पर पूरी तरह रोक नहीं लग पाई है, लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं कि इन अपराधों के विरुद्ध कानून न बनाए जाएं। समस्या असल में दूसरी है, वह यह है कि कानून निर्माताओं को जमीनी हकीकत का अहसास नहीं है। यही नहीं, जब भी सख्त कानून बनाने की बात चलती है, मानवाधिकार उल्लंघन का हौवा खड़ा कर दिया जाता है, नतीजतन कानून को अत्यधिक लचीला या हल्का-फुल्का बना दिया जाता है और इस तरह उसकी कोई खास उपयोगिता नहीं रह जाती।
केंद्र सरकार कहती है कि नक्सलियों से लड़ना राज्य सरकार की जवाबदेही है जिनके पास न तो पैसा है, न उन्नत हथियार, न ही प्रशिक्षित पुलिस बल और सक्षम खुफिया तंत्र। नक्सलियों ने पुलिस से लूटे गए हथियारों के बल पर एक गुरिल्ला युद्ध छेड़ रखा है। हमारे सुरक्षा बल जान की बाजी लगाकर उनका सामना कर रहे हैं लेकिन कई बार उन्हें ही आलोचना और बदनामी झेलनी पड़ती है। नक्सलियों से लड़ता हुआ कोई पुलिसकर्मी मारा जाता है तो कोई उसके लिए आंसू तक नहीं बहाता बल्कि ऐसी घटनाओं को परोक्ष रूप से जायज ठहराते हुए कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी बयान देते हैं कि यह हिंसा गरीबी और बेरोजगारी की देन है या यह कृषि संकट की देन है। इस बात से किसे इनकार होगा कि देश में गरीबी और बेरोजगारी की स्थिति बेहद खतरनाक है। लेकिन गौर करने की बात है कि नक्सलवाद जैसे आंदोलन के कारण ही ये समस्याएं दूर नहीं हो पा रही हैं। आखिर उन इलाकों में कौन निवेश करेगा, कैसे वहां सड़कें और पुल बन पाएंगे, जहां नक्सलियों के आंदोलन के कारण अशांति और असुरक्षा बनी रहती है?
नई केंद्र सरकार ने अपने पहले सौ दिनों के लक्ष्य में नक्सल आंदोलन से निपटने की योजनाओं को भी शामिल किया है। सरकार ने एक मल्ट एजेंसी सेंटर बनाने का फैसला किया है जो चौबीसों घंटे काम करेगा और आतंक की तमाम घटनाओं से जुड़ी सूचनाओं को एकत्रित तथा प्रसारित करेगा। सरकार एक नैशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर भी बनाना चाहती है जिसके जरिए समस्त सूचनाओं का संयोजन संभव होगा। देखना है कि इन संस्थानों के गठन से नक्सली हिंसा के खिलाफ लड़ने में कितनी मदद मिलती है।
इस लेख के लेखक सीबीआई के पूर्व निदेशक सरदार जोगिन्दर सिंह हैं