Tuesday, December 1, 2009

बाबरी और राव का अंतिम सच


जस्टिस लिब्रहान ने जिन एक हजार पन्नों पर अपनी रपट लिखी है, वे बर्बाद हो गए। उन्हीं एक हजार पन्नों पर यदि छोटे बच्चों को क ख ग पढ़ाया जाता तो उनका कुछ बेहतर इस्तेमाल होता।

यह कैसी रपट है कि बाबरी मस्जिद तोड़नेवाले एक भी कारसेवक पर वह उंगली नहीं रख सकी। वह उस साजिश का पर्दाफाश भी नहीं कर सकी, जिसके तहत मस्जिद गिराई गई लेकिन इस रपट के बहाने देष में जबर्दस्त राजनीतिक लीपा-पोती चल रही है। स्वयं लिब्रहान ने श्री नरसिंह राव पर व्यंग्य-बाण कसे हैं।

इस लीपा-पोती का सबसे दुखद पहलू यह है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव को कठघरे में खड़ा किया जा रहा है। कोई कह रहा है कि 6 दिसंबर 1992 को वे दिन भर सोते रहे। कोई कह रहा है कि राव और संघ की मिलीभगत थी और मुझे उध्दृत करके यह भी कहा जा रहा है कि राव साहब ने मुझे कहा कि ''चलो अच्छा हुआ, मस्जिद टूटी, पिंड कटा।'' ये तीनों बातें बिल्कुल निराधार हैं।

6 दिसंबर 1992 को रविवार था। उसी दिन मस्जिद टूटी थी। उस दिन सुबह साढ़े आठ बजे से रात साढ़े ग्यारह बजे के बीच राव साहब से मेरी कम से कम छह-सात बार बात हुई है। रविवार होने के बावजूद मैं सुबह ठीक आठ बजे अपने दफ्तर (पी.टी.आई.) पहुंच गया था। साढ़े आठ बजे के आस-पास उनसे रोजमर्रा की तरह सामान्य बातचीत हुई। सवा दस बजे के करीब मैंने उन्हें बताया कि मस्जिद के पहले डोम पर लोग चढ़ गए हैं। हम दोनों की बातचीत के बीच आईबी प्रमुख वैद्य ने उन्हें ''रेक्स'' (लाल फोन) पर इसकी पुष्टि की ! राव साहब ने मुझसे कहा कि ''यह तो भयंकर धोखा हुआ।'' ''इन लोगों'' ने आपसे और मुझसे जितने भी वायदे किए थे, सब भंग कर दिए। राव साहब के प्रतिनिधि के तौर पर मैं विहिप, संघ, भाजपा नेताओं, साधु-संतों और मुस्लिम नेताओं से मंदिर-मस्जिद विवाद पर लगभग साल भर से बातचीत चला रहा था। औपचारिक तौर पर यह बातचीत शरद पवार, सुबोधकांत सहाय, कुमारमंगलम और राजेश पायलट चलाते थे।

राम-मंदिर आंदोलन के सभी नेताओं ने प्रधानमंत्री से आग्रह किया था कि उन्हें कार सेवा करने दी जाए। राव साहब कार-सेवा की अनुमति देने के पक्ष में नहीं थे। बातचीत टूटनेवाली थी लेकिन विहिप नेताओं ने मेरे आग्रह पर कार-सेवा की तारीख तीन माह आगे बढ़ाई और छह दिसंबर की तिथि तय हुई। यह समझौता 24 जुलाई को हुआ। इसी बीच प्रधानमंत्री ने राम-मंदिर आंदोलन का समाधान निकालने के लिए क्या-क्या प्रयत्न नहीं किए। इन सबका उल्लेख यहां नहीं हो सकता। 3 दिसंबर को मुख्यमंत्री कल्याणसिंह ने मुझे फोन किया और लगभग एक घंटे बात की। सर संघचालक रज्जू भय्या, सुदर्षनजी, अषोक सिंघलजी, डालमियाजी, आडवाणीजी, अटलजी, विनय कटियार आदि से भी स्पष्ट बात हुई। समझौता यह हुआ कि ढांचे के पास कोई नहीं जाएगा। केवल चबूतरे पर कार-सेवा होगी। कोई तोड़-फोड़ या ंहिंसा नहीं होगी। ऐसा ही आष्वासन उच्चतम न्यायालय और राष्ट्रीय एकात्मता समिति को भी दिया गया था। लेकिन मुझे काफी शक था, क्योंकि बेकाबू होती भीड़ के कई कड़ुए अनुभव मुझे अपने छात्र-काल में हो चुके थे। मैंने कुछ रक्षा-विषेषज्ञों से बात करके प्रधानमंत्री को सलाह दी थी कि वे रबर-बुलैटों का अग्रिम प्रबंध करें ताकि हिंसक कार सेवकों को घायल किए बिना घटना स्थल से भगाया जा सके। मैंने उनसे यह भी कहा था कि छह दिसंबर के दिन मस्जिद को चारों तरफ से टैंकों से घिरवा दिया जाए।


ज्यों-ज्यों मस्जिद के दूसरे डोमों के गिरने की खबर आती गई, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री शंकरराव चव्हाण, अन्य वरिष्ठ अफसर और मैं कई विकल्पों पर विचार करते रहे। फैजाबाद स्थित पुलिस बल को अयोध्या दौड़ाने, कल्याणसिंह को बर्खास्त करने, ढांचे को बचाने, कार-सेवकों को विसर्जित करने आदि का कोई भी निर्णय लागू नहीं हो सका, क्योंकि हर निर्णय में कानूनी अड़चनें थीं और उससे भी ज्यादा आषंका यह थी कि यदि घटना-स्थल पर रक्तपात हो गया तो उसकी आग सारे देष में फैल जाएगी। कोढ़ में खाज क्यों पैदा करना ? मैं स्वयं उस समय तत्काल कठोर कार्रवाई के पक्ष में था लेकिन अब 17 साल बाद सोचता हूं तो लगता है कि राव साहब ने असाधारण धैर्य का परिचय देकर ठीक किया। लगभग चार बजे राज्यपाल सत्यनारायण रेड्डी ने मुझसे फोन पर पूछा कि ''क्या करें, मुख्यमंत्री राजभवन के गेट पर खड़े हैं ?'' मैंने कहा, 'वही कीजिए, जो गृहमंत्री कहते हैं।'' इस बारे में प्रधानमंत्री से आधा-एक घंटा पहले मेरी बात हो चुकी थी। याद रहे, राव साहब अक्सर पौने तीन बजे लंच के बाद आधा घंटा विश्राम किया करते थे। उस दिन उन्होंने न तो भोजन किया और न ही विश्राम। दूसरे दिन उन्हें तेज बुखार हो गया और गला इतना खराब रहा कि वे फोन पर ठीक से बात भी नहीं कर पा रहे थे। उस रोज मैंने खुद रात को साढ़े ग्यारह बजे वित्त राज्यमंत्री श्री रामेष्वर ठाकुर के घर भोजन किया। उस दिन देष के अनेक प्रमुख नेताओं से दिन-भर फोन पर बात होती रही। पता नहीं क्यों, संघ और कांग्रेस के भी कुछ नेताओं ने प्रधानमंत्री के विरूध्द तलवारें खींच लीं। उन्हें बदनाम करने और अपदस्थ करने के लिए क्या-क्या षडयंत्र नहीं किए गए ? राव साहब के एक वरिष्ठ मंत्री ने मुझे भी धमकी दी। जब मैं ठाकुरजी के घर भोजन कर रहा था तो उन्होंने कहा ''आपको और आपके मित्र राव साहब को अब हम देख लेंगे।'' हुआ क्या ? वे खुद ही बाहर हो गए और राव साहब पूरे पांच साल सरकार चलाते रहे। संघ के लोग कहते रहे कि नरसिंहराव से बड़ा शातिर कौन हो सकता है ? उन्होंने बाबरी ढांचा जान-बूझकर टूटने दिया ताकि संघ और मंदिर-आंदोलन हमेषा के लिए बदनाम हो जाएं। इस बहाने उन्होंने भाजपा की राज्य-सरकारें भी भंग कर दीं। श्री नरसिंहराव पर मस्जिद तुड़वाने का आरोप वैसा ही है, जैसा यह कहना कि न्यूयार्क के ट्रेड टॉवर अमेरिका के यहूदियों ने गिरवाए या बेनज़ीर भुट्टों की हत्या आसिफ ज़रदारी ने करवाई! अफसोस इस बात का है कि ऐसी बे-सिरपैर की बातों को कांग्रेस के कुछ जिम्मेदार नेताओं ने भी प्रोत्साहित किया, खासतौर से राव साहब के पद से हटने के बाद। वे यह भूल गए कि उनकी यह कृतघ्नता राव साहब से ज्यादा खुद कांग्रेस को बहुत मंहगी पड़ेगी। आष्चर्य है कि आज की कांग्रेस भी राव साहब की भूमिका पर हकला रही है। नरसिंहरावजी की नीयत पर शक करना अपने महान लोकतंत्र की इज्जत को खटाई में डालना है।

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
(लेखक, प्रधानमंत्री नरसिंहराव के अभिन्न मित्र रहे हैं)

Wednesday, June 24, 2009

माओवादियों का लाल आतंक देश के लिये गंभीर खतरा है


वोट बैंक की राजनीति के कारण जब पश्चिम बंगाल सरकार ने माओवादियों के सामने एक तरह से समर्पण ही कर दिया, तब वह केंद्रीय बलों को वहां हालात संभालने के लिए बुलाने को बाध्य हुई, ताकि उसकी कुछ तो विश्वसनीयता कायम रह सके। बेशक, माओवाद की समस्या से केंद्र सरकार द्वारा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) पर सिर्फ प्रतिबंध लगाने से नहीं निपटा जा सकता। पर सवाल यह है कि जब दशकों से पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी का शासन रहा है, तो उसके नेताओं ने वे कड़े फैसले क्यों नहीं किए जिनसे माओवाद से सबसे बेहतर ढंग से निपटा जा सकता था। अगर कड़े उपायों की जगह राजनीतिक प्रयासों से समस्या सुलझाई जा सकती थी, तो ऐसा पहले ही किया जाना चाहिए था। अब केंद्र के उपायों के खिलाफ बयानबाजी करके लोगों को भरमाने से बाज आना चाहिए। ये बातें सिर्फ लालगढ़ या पश्चिम बंगाल पर ही लागू नहीं होतीं, बल्कि झारखंड, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश आदि उन राज्य सरकारों पर भी लागू होती हैं, जो नक्सल समस्या से प्रभावित हैं। राज्य सरकारों को इस बारे में दोहरा रवैया अपनाने और देखो व इंतजार करो की नीति से भी दूर रहने की जरूरत है। मोटे तौर पर देश की एकता-अखंडता को प्रभावित करने वाले मुद्दे पर कोई समझौता नहीं होना चाहिए।


उल्लेखनीय है कि कुछ समय पहले प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने नक्सली हिंसा को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था। हाल की नक्सली कार्रवाइयों को देखते हुए यह बात एकदम सही लगती है। हालांकि इस आंदोलन की शुरुआत के साथ ही तत्कालीन सरकार ने इसके खतरों को भांप लिया था। 70 के दशक में सरकार ने अभियान चलाकर नक्सलियों की कमर तोड़ दी थी, उसके बाद वे छोटे-छोटे गुटों में बिखर गए। इनमें पीपल्स वार ग्रुप और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर प्रमुख थे। वर्ष 2004 में इनका आपस में विलय हो गया और इन्होंने मिलकर सीपीआई (माओवादी) का गठन किया। ये गरीबों और आदिवासियों की मदद करने की आड़ में राज्य सत्ता को लगातार चुनौती दे रहे हैं। वे खास तौर से पुलिस और सुरक्षाबलों को निशाना बनाते रहे हैं। इस साल मई तक 162 सुरक्षाकर्मियों की मौत नक्सली हमले में हो चुकी है। पिछले साल नक्सली हमले में 231 लोगों ने अपनी जान गंवाई थी।

नक्सलवाद या माओवाद के बढ़ते खतरे के बावजूद नक्सलियों से निपटने की स्पष्ट नीति का अभाव नजर आता रहा है। इस मामले में हर राजनीतिक दल अपना अलग-अलग राग अलापता रहा है। चुनाव के समय सियासी पार्टियां किसी से भी सहयोग लेने से नहीं हिचकतीं। वोट के लिए वे माओवादियों से भी हाथ मिलाने को तैयार रहती हैं। नक्सली हिंसा से निपटने में देश के वर्तमान कानून काम नहीं आ रहे। ये कानून न सिर्फ अपर्याप्त हैं बल्कि उन्हें अमल में लाना भी संभव नहीं है। वास्तव में आज कोई कारगर कानून ही नहीं है, जो नक्सली हिंसा से निपट सके।


कानून बनाते समय तात्कालिक परिस्थितियों का ही ध्यान रखा जाता है, भविष्य पर नजर नहीं रहती। आज के कई कानून 1863 में बने हुए हैं। उस वक्त शायद ही किसी ने सोचा होगा कि एक दिन देश के सामने नक्सली हिंसा का इतना भयावह संकट पैदा होगा और वे कुछ क्षेत्रों में सरकार के समानांतर अपनी सत्ता भी कायम कर लेंगे।

नक्सली हिंसा के मामले में कानूनी कार्रवाई तभी संभव है, जब उनकी हिंसा के कुछ प्रत्यक्षदर्शी सामने आएं। पर फिलहाल तो ऐसे गवाहों का मिलना असंभव है, जो कोर्ट के सामने आकर सारी बात बताएं और लंबे समय तक निरंतर मुकदमे की कार्यवाही में सहयोग करते रहें।


देश में एक तबका ऐसा भी है जो कहता है कि नक्सली हिंसा को ध्यान में रखकर कानून बनाने से भी इस पर रोक नहीं लग पाएगी। यह तर्क अमर्यादित और बचकाना है। देश में डकैती, बलात्कार, दहेज हत्या और रैश ड्राइविंग को रोकने के लिए कानून बने हुए हैं फिर भी इन पर पूरी तरह रोक नहीं लग पाई है, लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं कि इन अपराधों के विरुद्ध कानून न बनाए जाएं। समस्या असल में दूसरी है, वह यह है कि कानून निर्माताओं को जमीनी हकीकत का अहसास नहीं है। यही नहीं, जब भी सख्त कानून बनाने की बात चलती है, मानवाधिकार उल्लंघन का हौवा खड़ा कर दिया जाता है, नतीजतन कानून को अत्यधिक लचीला या हल्का-फुल्का बना दिया जाता है और इस तरह उसकी कोई खास उपयोगिता नहीं रह जाती।

केंद्र सरकार कहती है कि नक्सलियों से लड़ना राज्य सरकार की जवाबदेही है जिनके पास न तो पैसा है, न उन्नत हथियार, न ही प्रशिक्षित पुलिस बल और सक्षम खुफिया तंत्र। नक्सलियों ने पुलिस से लूटे गए हथियारों के बल पर एक गुरिल्ला युद्ध छेड़ रखा है। हमारे सुरक्षा बल जान की बाजी लगाकर उनका सामना कर रहे हैं लेकिन कई बार उन्हें ही आलोचना और बदनामी झेलनी पड़ती है। नक्सलियों से लड़ता हुआ कोई पुलिसकर्मी मारा जाता है तो कोई उसके लिए आंसू तक नहीं बहाता बल्कि ऐसी घटनाओं को परोक्ष रूप से जायज ठहराते हुए कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी बयान देते हैं कि यह हिंसा गरीबी और बेरोजगारी की देन है या यह कृषि संकट की देन है। इस बात से किसे इनकार होगा कि देश में गरीबी और बेरोजगारी की स्थिति बेहद खतरनाक है। लेकिन गौर करने की बात है कि नक्सलवाद जैसे आंदोलन के कारण ही ये समस्याएं दूर नहीं हो पा रही हैं। आखिर उन इलाकों में कौन निवेश करेगा, कैसे वहां सड़कें और पुल बन पाएंगे, जहां नक्सलियों के आंदोलन के कारण अशांति और असुरक्षा बनी रहती है?

नई केंद्र सरकार ने अपने पहले सौ दिनों के लक्ष्य में नक्सल आंदोलन से निपटने की योजनाओं को भी शामिल किया है। सरकार ने एक मल्ट एजेंसी सेंटर बनाने का फैसला किया है जो चौबीसों घंटे काम करेगा और आतंक की तमाम घटनाओं से जुड़ी सूचनाओं को एकत्रित तथा प्रसारित करेगा। सरकार एक नैशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर भी बनाना चाहती है जिसके जरिए समस्त सूचनाओं का संयोजन संभव होगा। देखना है कि इन संस्थानों के गठन से नक्सली हिंसा के खिलाफ लड़ने में कितनी मदद मिलती है।


इस लेख के लेखक सीबीआई के पूर्व निदेशक सरदार जोगिन्दर सिंह हैं

Sunday, February 1, 2009

कार्टून : बरखा दत्त कर रहीं हैं रिपोर्टिंग एनडीटीवी के लिये


एनडीटीवी द्वारा एक ब्लागर के प्रति की गई ज्यादती पर मुझे ईमेल द्वारा यह कार्टून मिला है, आप भी मुलाहजा फरमाईये.


अधिक जानकारी के लिये निम्न पोस्ट देखिये