Thursday, September 2, 2010

क्या चोरी चकारी करना हमारे विधायकों का जन्म सिद्व अधिकार है?

अगर मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने न्याय किया और मध्य प्रदेश विधानसभा के अपने रिकॉर्ड पर कार्रवाई की तो प्रदेश के बहुत सारे विधायक जालसाजी के आरोप में जेल में नजर आएंगे। उन सबने फर्जी यात्रा बिल दे कर बहुत बेशर्मी से कुल मिला कर करोड़ों रुपए के यात्रा भत्ते की चोरी की है। यह खुलासा जिस अखबार ने किया है उसे विधायकों के कोप से बचने के लिए मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की शरण लेनी पड़ी है।


देश में पहली बार किसी अखबार ने इतनी हिम्मत की है। हालांकि ऐसा नहीं कि लोकसभा और दूसरे राज्यों की विधानसभाओं में ऐसा होने के संकेत नहीं मिले हो लेकिन मध्य प्रदेश विधानसभा में एक अखबार ने सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए फर्जी यात्रा बिलों और दूसरे तरीकों से विधायकों की लाखों रुपए की चोरी पकड़ी और जवाब मांगा। निर्वाचित जनप्रतिनिधि जैसे हमेशा देश और उसके पैसे को बाप का माल समझते है वैसे ही यहां भी किया गया।


मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से प्रकाशित राज एक्सप्रेस के संपादक पर विधानसभा का विशेषाधिकार हनन करने का नोटिस थमा दिया गया। चोरी चकारी करना हमारे विधायकों का शायद जन्म सिद्व अधिकार हो और वही उनका विशेषाधिकार हो। मगर तथ्य सामने थे। एक ही विधायक एक समय में विधानसभा में भी था, अपने चुनाव क्षेत्र में भी था, दिल्ली या मुंबई में भी था और रेल, जहाज और टेक्सी से एक साथ चल रहा था। ऐसे अवतारी नेताओं के पास जवाब था नहीं और आम तौर पर क्षेत्रीय अखबार डर जाते हैं, विधायकों के दुर्भाग्य से राज एक्सप्रेस के मालिक अरुण सेहलोत और संपादक रवींद्र जैन ने बेईमानों से पंजा लड़ाने की ठान ली।


ऐसा पहली बार हुआ है कि कोई अखबार पूरी विधानसभा के खिलाफ उसकी चोरियां पकड़वाने के लिए उच्च न्यायालय में गया है। अभी वह नाटक नौटंकी होनी बाकी है जिसमें यह तय किया जाएगा कि जनता के प्रतिनिधि बड़े है या अदालत का जज। न्याय प्रक्रिया और विधायिका के बीच एक नैतिक सवाल पर लड़ाई हो सकती है मगर यहां तो विधायक की हैसियत से नहीं बल्कि सरकारी पैसे के चोरों की हैसियत से इन लोगों से सवाल किया गया है और चोरों के पास जवाब कभी नहीं होता।


अरुण सेहलोत और रवींद्र जैन ने मई और जून के महीने में मध्य प्रदेश विधानसभा के कुछ विधायकों द्वारा मिले विशेषाधिकार हनन के नोटिस और इसके बाद इन नोटिसों को विशेषाधिकार समिति को भेजे जाने की सूचना जुलाई में आई। राज एक्सप्रेस ने सवाल किया है कि क्या संविधान की धारा 194 के तहत नेक इरादे से और जनहित में विधायकों द्वारा सरकारी पैसा हजम करने की खबर जनता को देना गलत है? क्या इस सूचना का विधानसभा की कार्रवाई से कोई रिश्ता है? उच्च न्यायालय में दी गई याचिका में सवाल यह भी किया गया है कि क्या विधानसभा के विशेषाधिकार नोटिस की, विधायकों की बेईमानी के साफ सरकारी प्रमाणों के बावजूद संविधान की धारा 226 के तहत समीक्षा की जा सकती है?


सवाल तो यह भी है क्या विधानसभा अपने ही रिकॉर्ड से इनकार कर सकती है और अपनी ही द्वारा दी गई सूचनाआें को गलत साबित कर सकती है? कुल मिला कर सवाल यह है कि जिन्हें हम वोट देते हैं क्या उनके कुकर्मों पर सवाल भी नहीं उठा सकते? राज एक्सप्रेस ने सीधे सवाल किया है कि आखिर विधायकों के वेतन भत्ता नियमों को किस हद तक तोड़ा गया है और यह अपराध है या नहीं? अगर यह अपराध है तो अपराधी सफाई देने की बजाय आरोप लगाने पर कैसे तुल गए? विधानसभा के अध्यक्ष ईश्वर दास रोहाणी को भी सवाल उठता ही है और अदालत में उन्हें भी पार्टी बनाया गया है और पूछा गया है कि बजाय विधायकों के खिलाफ दिए गए सबूतों की जांच करने के उन्होंने अखबार को कैसे जारी होने दिया?

इसके अलावा नोटिस का जवाब देने के लिए जिस और रिकॉर्ड की जरूरत थी, वह देने से इनकार कर दिया गया और सीधे मामला विधायकों ने अपनी ही एक अदालत में पहुंचा दिया। विशेषाधिकार समिति के अध्यक्ष और विधायक गिरीश गौतम न्यायमूर्ति की हैसियत में जरूर है मगर अखबार में तो चोरों की सूची में उनका भी नाम लिखा है। उन्होंने भी विधानसभा से गलत और फर्जी तरीकों से भत्ते लिए हैं। अखबार ने संविधान की ही धारा 19/1 और सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का हवाला देते हुए जनहित में अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल उठाया है और पूछा है कि हमारे जनप्रतिनिधि किसके प्रति जवाबदेह है?

विधानसभा के अपने नियमों पर भी अगर कोई विधायक विधानसभा के आठ किलोमीटर के दायरे में रहता है तो उसे कोई यात्रा भत्ता नहीं मिलता। आखिर विधायकों को भी छह रुपए प्रति किलोमीटर के हिसाब से मिलता हैं। यहां तो कमाल यह हुआ कि एक ही विधायक एक ही जगह से एक ही जगह की यात्रा करता है और उसके बिल में हजारों रुपए का फर्क होता है। इसे कहते है चोरी और सीनाजोरी।

अखबार को सूचना के अधिकार के तहत बताया गया कि भोपाल के लोकल विधायकों ने भी दबा कर यात्रा भत्ता वसूले है। वे एक साथ रेल, जहाज और बस से भी यात्रा करने की प्रतिभा रखते हैं तो मध्य प्रदेश इतना पिछड़ा हुआ क्यों हैं? इस प्रतिभा का इस्तेमाल क्यों नहीं किया जा रहा? होना तो ये चाहिए कि जिस तरह की जानकारी मध्य प्रदेश विधानसभा के माननीय विधायकों के बारे में सार्वजनिक हुई हैं उसके बारे में संसद और देश की सभी विधानसभाओं में जांच होनी चाहिए तो यह खेल अरबों रुपए के घोटाले का हो जाएगा।

साभार : आलोक तोमर - डेटलाइन इंडिया

Sunday, August 29, 2010

क्या आपने विनायक दामोदर सावरकर की "Indian War of Independence 1857" पढी है?


कुछ बेबकूफ कांग्रेसी और बुद्धिहीन कम्युनिष्ट अपने छुद्र स्वार्थों के चलते या अपनी बेबकूफी के चलते सावरकर के नाम से चिढ़ते रहते हैं.

Indian War of Independence 1857 की हिन्दी प्रति मेरे नानाजी ने मेरे बचपन में मुझे उपहार में दी थी. मेरे पढने के दौरान मेरा एक मित्र इसे मांग कर ले गया और मैं इसे तब से अब तक नहीं पढ सका.

भूतपूर्व राष्ट्रपति कलाम साहब के कार्यकाल के दौरान भारतीय पुस्तकों के डिजिटलिजेशन की शुरूआत हुई जिसमें पहले सावरकर की पुस्तकें भी शामिल थीं. पिछले दिनों जब मैंने उस डिजिटल लाइब्रेरी को खंगाला तो उसमें से सावरकर की अधिकांश पुस्तकें गायब पाईं. पहले अंग्रेजों ने उनकी पुस्तकों पर प्रतिबन्ध लगाया अब भी सावरकर की पुस्तकों पर छिपा प्रतिबन्ध लगाया जाय तो किसके लिये ये शर्म की बात है, सरकार के लिये या हमारे लिये?

खैर आप Indian War of Independence 1857 अंग्रेजी संस्करण डाउनलोड करके पड़ सकते हैं, जब तक इसका हिन्दी संस्करण न मिले

Download Indian War of Independence 1857


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Friday, August 27, 2010

कॉमनवेल्थ खेलों का बहिष्कार करें - चेतन भगत


कॉमनवेल्थ खेलों पर घिसी-पिटी बातें करने का मेरा कोई इरादा नहीं है। इस बारे में पहले ही बहुत लिखा जा चुका है। अलबत्ता इसके बावजूद हुआ कुछ नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि यह स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे बड़ा घपला है। लूट-खसोट के बाद भी बच निकलना एक बात है, लेकिन यह हमारे देश में ही संभव है कि कोई व्यक्ति चोरी करने के बावजूद अपनी हरकतों को बदस्तूर जारी रखे। दिल्ली एक बहुत बड़ा गड्ढा बन गई है। कॉमनवेल्थ खेलों की आधिकारिक धुन या रिंगटोन कभी न खत्म होने वाली ड्रिलिंग की ध्वनि होनी चाहिए। यदि आपको यह फिक्र है कि निर्माण कार्य समय-सीमा में पूरे हो सकेंगे या नहीं, तो जरा खेल खत्म होने के बाद दिल्लीवासियों की दुर्दशा के बारे में भी सोचें। जिन सड़कों पर खुदाई कर दी गई है, उनकी कभी मरम्मत नहीं होगी। सड़कों के ये गड्ढे दिनदहाड़े हुई इस सबसे बड़ी डकैती की निशानी होंगे।

घपले उजागर होने के बाद अब दिखावे का दौर जारी है। हमारी सरकार को तो इसमें पीएचडी हासिल है। खेल पूरे होने तक जांच रिपोर्टो, बेतुके बयानों और दोषारोपण का सिलसिला चलता रहेगा। जैसे ही खेल खत्म हुए कि बात आई-गई हो जाएगी। लोग भूल जाएंगे। शानदार समापन समारोह में बॉलीवुड के सितारों का नाच होगा, जैसे कि यह मनोरंजन लूट-खसोट का हर्जाना हो। इसी दौरान ‘भारत की छवि को बचाने’ के प्रचार अभियान भी जारी रहेंगे। यह कहा जाएगा कि किसी भी तरह खेल निपट जाएं फिर देखा जाएगा। लोगों से उम्मीद की जाएगी कि वे कॉमनवेल्थ खेलों का समर्थन करें क्योंकि आखिरकार इन खेलों पर भारत की इज्जत दांव पर लगी हुई है। भारत की महान युवा शक्ति से अपील की जाएगी कि वे बड़ी तादाद में उमड़ें और स्टेडियमों को भर दें और आयोजन को ऊर्जा प्रदान करें

लेकिन यदि हम इस आयोजन का समर्थन करते हैं, तो यह भारी गलती होगी। यह भारत के नागरिकों के लिए एक सुनहरा मौका है कि वे इस भ्रष्ट और संवेदनहीन सरकार को शर्मिदगी का अहसास कराएं। आमतौर पर भ्रष्टाचार के मामले स्थानीय होते हैं और वे पूरे देश का ध्यान नहीं खींचते। लेकिन कॉमनवेल्थ खेलों के मामले में ऐसा नहीं है। यह एक ऐसा आयोजन है, जिसमें किसी एक क्षेत्र या प्रदेश विशेष की जनता नहीं, बल्कि पूरे देश की जनता ठगी गई है। यह सही समय है, जब हम भ्रष्टाचार के खेल का पर्दाफाश कर सकते हैं और इसके लिए हम वही रास्ता अख्तियार करना होगा, जो हमें बापू ने सुझाया है : असहयोग। मैं काफी सोच-समझकर ऐसा कह रहा हूं।

कॉमनवेल्थ खेलों का बहिष्कार करें। न तो खेल देखने स्टेडियम में जाएं और न ही टीवी पर देखें। हम धोखाधड़ी के खेल में चीयरलीडर की भूमिका नहीं निभा सकते। भारतीयों का पहले ही काफी शोषण किया जा चुका है। अब हमसे यह उम्मीद करना और भी ज्यादती होगी कि इस खेल में मुस्कराते हुए मदद भी करें। यदि वे संसद से वॉकआउट कर सकते हैं, तो हम भी स्टेडियमों से वॉकआउट कर सकते हैं।

कुछ लोग कह सकते हैं कि क्या हमें देश के गौरव का ख्याल रखते हुए ऐसा करना चाहिए? इससे मुझे एक छोटी सी कहानी याद आती है। जब मैं छोटा था तो हमारे पड़ोस में एक ऐसा परिवार रहता था, जिसमें पति अपनी पत्नी की बेरहमी से पिटाई किया करता था। पत्नी चोट के निशानों को छुपाने के लिए खूब मेकअप कर लेती थी। जब भी हम उनके घर जाते, तो वे दोनों इस तरह पेश आते जैसे वे दुनिया के सबसे बेहतरीन पति-पत्नी हों। वह औरत कभी-कभी पति की तारीफ भी किया करती थी। एक बार मैंने अपनी मां से पूछा कि वह ऐसा क्यों करती है? वह पति की सच्चाई को उजागर क्यों नहीं करती? मेरी मां ने कहा- क्योंकि घर की परेशानियों को इस तरह सबके सामने उजागर करना अच्छा नहीं लगता। उस औरत को अपने परिवार की इज्जत बचानी है, इसलिए झूठ बोलना उसकी मजबूरी है। धीरे-धीरे उस औरत के जख्म नासूर बनते चले गए। उसके पति की मारपीट बढ़ती रही। एक दिन यह नौबत आ गई कि पुलिस की गाड़ी और एंबुलेंस के सायरन से हमारा मोहल्ला गूंज उठा। आदमी को पुलिस पकड़कर ले गई और औरत को एंबुलेंस में लेकर जाना पड़ा

यही हमारे देश की भी तस्वीर है। हम अन्याय और भ्रष्टाचार पर परदा डालने के लिए एक नकली चेहरा पेश करने को तैयार हैं कि हमारे यहां सब कुछ ठीक है। कॉमनवेल्थ खेलों के मामले में आयोजक उस क्रूर पति की तरह हैं और भारत की जनता उस पिटती हुई औरत की तरह। लेकिन माफ कीजिए, नए जमाने की पत्नियां अब चुपचाप पिटती नहीं रह सकतीं। कॉलेज यूनियनें, स्कूल और युवा आगे आएं और कहें कि हम इन खेलों का समर्थन नहीं करते हैं। गांधीजी ने कहा था कि अत्याचारी हम पर अत्याचार कर सकता है, लेकिन वह हमें सहयोग करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता। खेलों के ब्रांड एंबेसेडर बनने वाले चेहरों को इस आयोजन से अपना नाम जोड़ने से पहले दो बार सोचना चाहिए कि क्या वे यह चाहेंगे कि भ्रष्टाचार पर परदा डालने के लिए उनकी छवि का इस्तेमाल किया जाए? मैं विदेशी मीडिया से भी अपील करना चाहूंगा कि वे सही तस्वीर पेश करें। यह भारत की जनता का कोई दोष नहीं है। यह राजनेताओं के उस गिरोह का दोष है, जो एक गरीब मुल्क की तिजोरी पर डाका डालने में जरा भी नहीं हिचकिचाया।

उन्हें इस स्थिति का उपयोग यह समझाने के लिए करना चाहिए कि आखिर क्यों हम भारतीय ओलिंपिक में पदक नहीं जीत पाते। इसकी वजह यह नहीं है कि हमारे यहां प्रतिभाएं नहीं हैं। इसकी वजह यह है कि जो लोग भारत में खेल संस्थाओं पर काबिज हैं, उन्हें स्वर्ण पदक से ज्यादा परवाह इस बात की है कि अपने खीसे में चोरी का सोना कैसे ठूंसा जा सकता है

यह सरकार पिछले साल ही चुनाव जीतकर फिर सत्ता में आई है। उसे स्पष्ट बहुमत हासिल हुआ और उसके सहयोगी दलों में एकता है। यदि वे चाहते तो अगले पांच सालों में सुप्रशासन की मिसाल पेश कर सकते हैं। लेकिन उन्होंने उन्हें वोट देने वाले भारतीयों को महंगाई और भ्रष्टाचार के सिवा क्या दिया? क्या इसी तरह नेता हमारे युवाओं के लिए रोल मॉडल साबित होंगे? यह विपक्षी दलों के लिए भी एक बेहतरीन मौका है, बशर्ते वे एकजुट हों। यदि वे धर्म की राजनीति में नहीं उलझते हैं और साफ छवि वाले मेहनती नेताओं को आगे लाते हैं, तो उन्हें सत्ता में वापसी करते देर नहीं लगेगी।

मौजूदा सरकार भी अगर चाहे तो अपने दाग धो सकती है, लेकिन कॉमनवेल्थ खेलों का भव्य आयोजन करके नहीं। इसका एक ही तरीका है कि जो लोग भ्रष्टाचार के दोषी हैं, उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दी जाए। चाहे वे कितने ही रसूखदार क्यों न हों। यह एक नकली भव्य शो आयोजित करने का नहीं, भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म कर देने का मौका है। नहीं तो दिल्ली में जो गड्ढे खोदे गए हैं, वे ही सरकार की राजनीतिक कब्र साबित होंगे।

Thursday, August 26, 2010

गेम्स पर 28 हजार करोड़, गलत प्राथमिकता है - अज़ीम प्रेमजी


हाल ही में, केंद्रीय सरकार ने यह खुलासा किया है कि दिल्ली में हो रहे कॉमनवेल्थ गेम्स पर लगभग 11,494 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है। दो कारणों से, यह आंकड़ा, बेचैन करने वाला है - पहला, क्योंकि यह शुरुआती के 655 करोड़ रु. के एस्टिमेट से कई गुना ज्यादा है और दूसरा - गेम्स की असल लागत इससे भी कहीं ज्यादा होगी अगर हम इन खर्चों को भी शामिल करें, मसलन:

  • - 16,560 करोड़ रुपये जो दिल्ली सरकार राजधानी के इंफ्रास्ट्रक्चर को अपग्रेड करने में खर्च कर रही है। एक नया एयरपोर्ट टर्मिनल, चौड़ी सड़कें, नए फ्लाईओवर, मेट्रो रेल का प्रसार वगैरह।
  • - मजदूरी की असल लागत - गेम्स प्रॉजेक्ट्स पर काम रहे मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी से कम पैसे मिलना, असुरक्षित हालात में काम करना और इंसानों के न रहने योग्य झुग्गियों में जीवन बसर करना।

कॉमनवेल्थ शब्द का असली अर्थ है जनकल्याण - ऐसे काम जो समाज की बेहतरी के लिए किए जाएं। क्या कॉमनवेल्थ गेम्स इस इम्तिहान को पास कर पाएंगे? क्या जनता की कमाई के 28 हजार करोड़ वाकई समाज की बेहतरी के लिए हैं?

मैं इसस सवाल का जवाब देने से पहले, गेम्स पर अपनी राय साफ कर दूं। सेलिब्रेशन या खुशी मनाने का भाव हम सबके ह्रदय की गहराई में बसा हुआ है। किसी आध्यात्मिक गुरु की सीख, एक राष्ट्र का उद्भव या फिर एक बच्चे का जन्म - इन सबको सेलिब्रेट करना जरूरी है, क्योंकि उन बातों की याद दिलाते हैं जो हमें सबसे ज्यादा प्रिय हैं।

किसी खिलाड़ी को अपनी शारीरिक और मानसिक सीमाओं को लांघते हुए देखना और नए कीर्तिमान स्थापित करना देखने वालों के लिए वाकई गजब का अनुभव होता है। ओलिंपिक की तरह ही कॉमनवेल्थ गेम्स, मानव की नई ऊंचाइयों को छूने के जज्बे का सेलिब्रेशन है। तो, अपनेआप में, गेम्स एक अच्छा प्रयास है।

लेकिन, दिल्ली में कॉमनवेल्थ गेम्स पर हजारों करोड़ रुपये के खर्च को देखते हुए यह सवाल उठाने की जरूरत है कि क्या यह धन सही तरीके से, समझदारी से खर्च किया जा रहा है। एक राष्ट्र के रूप में हम हमेशा धन की कमी से जूझते आए हैं। उदाहरण के लिए, भारत को बड़ी संख्या में नए स्कूलों, मौजूदा स्कूलों में बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर और ज्यादा टीचर रखने की जरूरत है। इसके लिए हमें जीडीपी का 6 फीसदी शिक्षा पर खर्च करना चाहिए जबकि हम इसका आधा भी नहीं दे पाते

इसी तरह से, देश में खेल के लिए बुनियादी ढांचे बेहद जरूरत है। खेलों को बढ़ावा देने के लिए, हमारी पहली प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि हम यह सुनिश्चित करें कि ज्यादा से ज्यादा बच्चों को खेल के मैदान तक एक्सेस मिले। उन्हें अच्छे साज-ओ-सामान और बढ़िया कोचिंग मिले। यह बुनियादी काम करने की बजाय, हम एक आयोजन पर लंबा-चौड़ा खर्च करें, तो यह साबित करता कि हमारी प्राथमिकताएं गलत हैं

पिछले दो दशकों के दौरान हुई तेज आर्थिक तरक्की के बावजूद, सचाई यही है कि भारत एक गरीब देश है। कुछ दिनों पहले ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी ने दुनिया के अत्यधिक गरीब देशों में शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन स्तर पर एक अध्ययन करवाया। इस अध्ययन में यह बात सामने आई कि बड़े पैमाने पर, भारत अब भी गरीब देश ही है। सच तो यह है कि अफ्रीका के सबसे निर्धन 26 देशों में भी गरीबों की संख्या उतनी नहीं है, जितनी भारत में

दिल्ली में गरीबी सबसे कम है जबकि इस स्केल के दूसरे सिरे पर - बिहार की 81 फीसदी जनता गरीबी में जी रही है। इसलिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि कॉमनवेल्थ गेम्स में एक लाख से ज्यादा मजदूर बिहार के हैं जो न्यूनतम से कम मजदूरी पर भी अपना खून-पसीना दिल्ली में आकर बहा रहे हैं

वैसे भी देश में सबसे अच्छा इंफ्रास्ट्रक्चर दिल्ली में ही है। ऐसे में, राजधानी की सड़कों को चौड़ा करने पर करोड़ों रुपये खर्च करने की बजाय क्या हमें बिहार में स्कूल और सड़कें नहीं बनानी चाहिए, जहां ये चीजें हैं ही नहीं? अगर हमारे पास 500 करोड़ रुपये हों तो हमें उससे तमाम स्कूलों में बेसिक स्पोर्ट्स इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने की बजाय क्या एक ही स्टेडियम के रेनोवेशन पर फूंक डालना चाहिए?

वास्तविक दुनिया में, यह तय करना काफी मुश्किल हो सकता है। जैसे कि, दिल्ली जैसे मेट्रो शहरों में इंफ्रास्ट्रक्चर पर खर्च करना भी जरूरी है क्योंकि इस खर्च की बदौलत हमारी राष्ट्रीय इकॉनमी को बढ़ावा मिलेगा। हमारे नेताओं को लगातार भिन्न प्राथमिकताओं के बीच किसी एक को चुनना होता है। ऐसा नहीं कि यह फैसले लेने के लिए उनके पास जानकारी नहीं होता या फिर उनकी नीयत साफ नहीं होती। इस दशक के दौरान भारत सरकार ने सामाजिक कल्याण और सबके विकास के लिए नरेगा और सर्व शिक्षा अभियान जैसे कार्यक्रम शुरू किए हैं।

लेकिन, नरेगा जैसे खास कार्यक्रमों से ही बात नहीं बनेगी। बल्कि, हमारी नीतियों और स्कीमों में प्रत्येक व्यक्ति के विकास की गुंजाइश होनी चाहिए। मैं कहना चाहता हूं कि हमारी सरकारी नीतियों में यह बात साफ तौर पर सामने आनी चाहिए कि डबल डिजिट जीडीपी ग्रोथ तब तक बेमानी है जबतक यह देश के गरीब-गुरबे और सबसे पिछड़े हुए तबके का भला नहीं करती

हम यह बात कैसे भूल सकते हैं कि 28 हजार करोड़ रुपये से हम हजारों गावों में स्कूल और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बना सकते थे। क्या हम इस फिजूलखर्ची को अनदेखा कर पाएंगे जब एक भूखा और कुपोषित बच्चा हमारी आंखों में देखेगा?

ऐसे समय में, यदि हमारे नेता गांधीजी के उस गुरुमंत्र की याद करें तो अच्छा होगा - ' गांधी जी कहते हैं, मैं तुम्‍हें एक ताबीज देता हूं। जब भी दुविधा में हो या जब अपना स्‍वार्थ तुम पर हावी हो जाए, तो इसका प्रयोग करो। उस सबसे गरीब और दुर्बल व्‍यक्ति का चेहरा याद करो जिसे तुमने कभी देखा हो, और अपने आप से पूछो- जो कदम मैं उठाने जा रहा हूं, वह क्‍या उस गरीब के कोई काम आएगा? क्‍या उसे इस कदम से कोई लाभ होगा? क्‍या इससे उसे अपने जीवन और अपनी नियति पर कोई काबू फिर मिलेगा? दूसरे शब्‍दों में, क्‍या यह कदम लाखों भूखों और आध्‍यात्मिक दरिद्रों को स्‍वराज देगा?'

Thursday, June 17, 2010

गैस त्रासदी मामले में मूल दस्तावेजों से हेराफेरी


गैस त्रासदी मामले में लापरवाही से हुई मौत की धारा 304ए में एफआईआर कायम की गई। यूनियन कार्बाइड के पांच अधिकारियों को गिरफ्तार भी किया गया। लेकिन दो दिन बाद जब उनमें से चार लोगों को अदालत में पेश कर रिमांड पर लिया गया तो पुलिस और अदालत दोनों के दस्तावेजों में 304ए के अलावा गैरइरादतन हत्या की धारा 304 और 278 व 429 भी थीं। सात दिसंबर को जब वारेन एंडरसन को दिए गए मुचलके पर भी इन्हीं चार धाराओं का जिक्र है।

एफआईआर बदली या धारा?:
विधि विशेषज्ञों के अनुसार रिमांड लेते समय केस डायरी और मूल एफआईआर भी अदालत में पेश की जाती हैं। अगर मूल एफआईआर धारा 304ए में दर्ज की गई तो रिमांड धारा 304 में कैसे ली गई? क्या केस डायरी में मामला गैरइरादतन हत्या का था? अगर यह मानवीय भूल थी तो एंडरसन के मुचलके में भी धारा 304 का जिक्र कैसे है? क्या मूल एफआईआर 304ए के बजाए गैरइरादतन हत्या की धारा 304 में लिखी गई थी जिसमें 10 साल तक की सजा का प्रावधान है? क्या मूल एफआईआर को बदल दिया गया? या फिर मूल एफआईआर में दर्ज एकमात्र धारा 304 को ही दो साल की सजा वाली धारा 304ए में बदल दिया गया?

क्या हुई खोजबीन?:
एक बार को मान लिया जाए कि एफआईआर तो 304ए में दर्ज हुई थी और जब पुलिस ने खोजबीन में पाया कि मामला तो गैरइरादतन हत्या का है तो इसमें अन्य गंभीर धाराएं भी जोड़ दी। लेकिन यदि ऐसा होता तो यह केस डायरी में लिखा होता और रिमांड आर्डर में भी। लेकिन यह कहीं भी नहीं लिखा गया कि इतनी गंभीर अपराध की धाराएं क्यों जोड़ी गईं और कब?

कैसे छोड़ा एंडरसन को?:
अगर मामला कमजोर किए जाने प्रयास था तो एंडरसन को कमजोर धारा के बजाए गैरइरादतन हत्या के मामले में क्यों गिरफ्तार किया गया? एक बार फिर मानवीय भूल? तो फिर गैरजमानती अपराध के मामले में उसे निजी मुचलके पर कैसे छोड़ दिया गया? जबकि उसके साथ ही गिरफ्तार केशुब महिन्द्रा और विजय गोखले को 8 दिन तक हिरासत में रहने के बाद हाईकोर्ट से जमानत लेनी पड़ी।

क्यों किया नजरअंदाज? :
भोपाल स्थित लॉ इंस्टीटच्यूट में कानून के जानकार आश्चर्य करते हैं कि पीड़ितों के ढेरों हमदर्द, इतने पुलिस अफसर, काबिल वकीलों और विद्वान न्यायाधीश इतनी कमजोरियों को 25 साल तक क्यों नजरअंदाज करते रहे?

पूर्व जिला न्यायाधीश रेणु शर्मा कहती हैं कि यदि यह सिद्ध हो जाए कि एफआईआर बदली गई तो जिम्मेदार के खिलाफ धारा 204 के तहत आपराधिक मामला बनता है। जांच में यदि मालूम चलता है कि ऐसा उच्च अफसरों के कहने पर किया गया तो उनके खिलाफ भी आपराधिक केस दर्ज होना चाहिए।

हुई है हेराफेरी?:
राज्य सरकार की विधि विशेषज्ञों की समिति के सदस्य शांतिलाल लोढ़ा मानते हैं कि इन दस्तावेजों में भारी हेराफेरी की गई हैं। उनका कहना है कि टाइपराइटर पर लिखी गई मूल एफआईआर तो गैरइरादतन हत्या की ही थी लेकिन बाद में इसमें हाथ से ए जोड़कर धारा 304ए का मामला बना दिया गया।

उनका कहना है कि न सिर्फ तत्कालीन एसएचओ बल्कि एसपी व सीबीआई के अफसरों के खिलाफ सरकारी दस्तावेजों से छेड़छाड़, अभियुक्त को बचाने, जांच को प्रभावित करने और कर्तव्य पूरा न करने की धाराएं 108, 119, 120, 201 ओर 222 के तहत केस दर्ज कर जांच आरंभ होनी चाहिए।

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साभार प्रस्तुति: कीर्ति गुप्ता का यह आलेख आज भोपाल दैनिक भास्कर के प्रथम पन्ने पर प्रकाशित हुआ है.

Wednesday, June 16, 2010

हमारे सैकड़ों भोपाल - वेदप्रताप वैदिक


भोपाल का हादसा हमारे हिंदुस्तान का सच्चा आईना है। भोपाल ने बता दिया है कि हम लोग कैसे हैं, हमारे नेता कैसे हैं, हमारी सरकारें और अदालतें कैसी हैं। कुछ भी नहीं बदला है। ढाई सौ साल पहले हम जैसे थे, आज भी वैसे ही हैं। गुलाम, ढुलमुल और लापरवाह! अब से 264 साल पहले पांडिचेरी के फ्रांसीसी गवर्नर के चंद सिपाहियों ने कर्नाटक नवाब की 10 हजार जवानों की फौज को रौंद डाला। यूरोप के मुकाबले भारत की प्रथम पराजय का यह दौर अब भी जारी है। यूनियन कार्बाइड हो या डाउ केमिकल्स हो या परमाणु हर्जाना हो, हर मौके पर हमारे नेता गोरी चमड़ी के आगे घुटने टेक देते हैं

आखिर इसका कारण क्या है? हमारी केंद्र और राज्य की सरकारों ने वॉरेन एंडरसन को भगाने में मदद क्यों की? कीटनाशक कारखाने को मनुष्यनाशक क्यों बनने दिया? 20 हजार मृतकों और एक लाख आहतों के लिए सिर्फ 15 हजार और पांच हजार रुपए प्रति व्यक्ति मुआवजा स्वीकार क्यों किया गया? उस कारखाने के नए मालिक डाउ केमिकल्स को शेष जहरीले कचरे को साफ करने के लिए मजबूर क्यों नहीं किया गया? इन सब सवालों का जवाब एक ही है कि भारत अब भी अपनी दिमागी गुलामी से मुक्त नहीं हुआ है।

सबसे पहला सवाल तो यही है कि यूनियन कार्बाइड जैसे कारखाने भारत में लगते ही कैसे हैं? कोई भी तकनीक, कोई भी दवा, कोई भी जीवनशैली पश्चिम में चल पड़ी तो हम उसे आंख मींचकर अपना लेते हैं। हम यह क्यों नहीं सोचते कि यह नई चीज हमारे कितनी अनुकूल है। जिस कारखाने की गैस इतनी जहरीली है कि जिससे हजारों लोग मर जाएं, उससे बने कीटनाशक यदि हमारी फसलों पर छिड़के जाएंगे तो कीड़े-मकोड़े तो तुरंत मरेंगे, लेकिन क्या उससे मनुष्यों के मरने का भी अदृश्य और धीमा इंतजाम नहीं होगा?

इसी प्रकार हमारी सरकारें आजकल परमाणु ऊर्जा के पीछे हाथ धोकर पड़ी हुई हैं। वे किसी भी कीमत पर उसे भारत लाकर उससे बिजली पैदा करना चाहती हैं। बिजली पैदा करने के बाकी सभी तरीके अब बेकार लगने लगे हैं। यह बेहद खर्चीली और खतरनाक तकनीक यदि किसी दिन कुपित हो गई तो एक ही रात में सैकड़ों भोपाल हो जाएंगे। रूस के चेनरेबिल और न्यूयॉर्क के थ्रीमाइललांग आइलैंड में हुए परमाणु रिसाव तो किसी बड़ी भयावह फिल्म का एक छोटा-सा ट्रेलर भर हैं। यदि हमारी परमाणु भट्टियों में कभी रिसाव हो गया तो पता नहीं कितने शहर और गांव या प्रांत के प्रांत साफ हो जाएंगे।

इतनी भयावह तकनीकों को भारत लाने के पहले क्या हमारी तैयारी ठीक-ठाक होती है? बिल्कुल नहीं। परमाणु बिजली और जहरीले कीटनाशकों की बात जाने दें, हमारे देश में जितनी मौतें रेल और कारों से होती हैं, दुनिया में कहीं नहीं होतीं। अकेले मुंबई शहर में पिछले पांच साल में रेल दुर्घटनाओं में 20706 लोग मारे गए। भोपाल में तो उस रात सिर्फ 3800 लोग मारे गए थे और 20 हजार का आंकड़ा तो कई वर्षो का है। यदि पूरे देश पर नजर दौड़ाएं तो लगेगा कि भारत में हर साल एक न एक भोपाल होता ही रहता है। इस भोपाल का कारण कोई आसमानी-सुलतानी नहीं है, बल्कि इंसानी है।

इंसानी लापरवाही है। इसे रोकने का तगड़ा इंतजाम भारत में कहीं नहीं है। यूनियन कार्बाइड के टैंक 610 और 611 को फूटना ही है, उनमें से गैस रिसेगी ही यह पहले से पता था, फिर भी कोई सावधानी नहीं बरती गई। इस लापरवाही के लिए सिर्फ यूनियन कार्बाइड ही जिम्मेदार नहीं है, हमारी सरकारें भी पूरी तरह जिम्मेदार हैं। यूनियन कार्बाइड का कारखाना किसी देश का दूतावास नहीं है कि उसे भारत के क्षेत्राधिकार से बाहर मान लिया जाए। भोपाल की मौतों के लिए जितनी जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड है, उतनी ही भारत सरकार भी है। जैसे रेल और कार दुर्घटनाओं के कारण इस देश में कोई फांसी पर नहीं लटकता, वैसे ही वॉरेन एंडरसन भी निकल भागता है।

एंडरसन के पलायन पर जैसी शर्मनाक तू-तू-मैं-मैं हमारे यहां हो रही है, वैसी क्या किसी लोकतंत्र में होती है? अगर भारत की जगह जापान होता तो कई कलंकित नेता या उन मृत नेताओं के रिश्तेदार आत्महत्या कर लेते। हमारे यहां बेशर्मी का बोलबाला है। हमारे नेताओं को दिसंबर के उस पहले सप्ताह में तय करना था कि किसका कष्ट ज्यादा बड़ा है, एंडरसन का या लाखों भोपालियों का? उन्होंने अपने पत्ते एंडरसन के पक्ष में डाल दिए? आखिर क्यों? क्या इसलिए नहीं कि भोपाल में मरनेवालों के जीवन की कीमत कीड़े-मकोड़े से ज्यादा नहीं थी और एंडरसन गौरांग शक्ति और श्रेष्ठता का प्रतीक था।

हमारे भद्रलोक के तार अब भी पश्चिम से जुड़े हैं। दिमागी गुलामी ज्यों की त्यों बरकरार है। यदि एंडरसन गिरफ्तार हो जाता तो उसे फांसी पर चढ़ाया जाता या नहीं, लेकिन यह जरूर होता कि यूनियन कार्बाइड को 15 हजार रुपए प्रति व्यक्ति नहीं, कम से कम 15 लाख रुपए प्रति व्यक्ति मुआवजा देने के लिए मजबूर होना पड़ता। यह मुआवजा भी मामूली ही होता, क्योंकि अभी मैक्सिको की खाड़ी में जो तेल रिसाव चल रहा है, उसके कारण मरने वाले दर्जन भर लोगों को करोड़ों रुपए प्रति व्यक्ति के हिसाब से मुआवजा मिलने वाला है। असली बात यह है कि औसत हिंदुस्तानी की जान बहुत सस्ती है।

यही हादसा भोपाल में अगर श्यामला हिल्स और दिल्ली में रायसीना हिल्स के पास हो जाता तो नक्शा ही कुछ दूसरा होता। ये नेताओं के मोहल्ले हैं। भोपाल में वह गरीब-गुरबों का मोहल्ला था। ये लोग बेजुबान और बेअसर हैं। जिंदगी में तो वे जानवरों की तरह गुजर करते हैं, मौत में भी हमने उन्हें जानवर बना दिया है।

यही हमारा लोकतंत्र है। हमारी अदालतें काफी ठीक-ठाक हैं लेकिन जब गरीब और बेजुबान का मामला हो तो उनकी निर्ममता देखने लायक होती है। सामूहिक हत्या को कार दुर्घटना जैसा रूप देने वाली हमारी सबसे बड़ी अदालत को क्या कहा जाए?

क्या ये अदालतें हमारे प्रधानमंत्रियों के हत्यारों के प्रति भी वैसी ही लापरवाही दिखा सकती थीं, जैसी कि उन्होंने 20 हजार भोपालियों की हत्या के प्रति दिखाई है? पता नहीं, हमारी सरकारों और अदालतों पर डॉलर का चाबुक कितना चला, लेकिन यह तर्क बिल्कुल बोदा है कि अमेरिकी पूंजी भारत से पलायन न कर जाए, इस डर के मारे ही हमारी सरकारों ने एंडरसन को अपना दामाद बना लिया। पता नहीं हम क्या करेंगे इस विदेशी पूंजी का?

जो विदेशी पूंजी हमारे नागरिकों को कीड़ा-मकोड़ा बनाती हो, उसे हम दूर से ही नमस्कार क्यों नहीं करते? यह ठीक है कि जो मर गए, वे लौटने वाले नहीं और यह भी साफ है कि जो भुगत रहे हैं, उन्हें कोई राहत मिलने वाली नहीं है लेकिन चिंता यही है कि हमारी सरकारें और अदालतें अब भी भावी भोपालों और भावी चेर्नोबिलों से सचेत हुई हैं या नहीं? यदि सचेत हुई होतीं तो परमाणु हर्जाने के सवाल पर हमारा ऊंट जीरा क्यों चबा रहा होता?

डा. वेद प्रताप वैदिक प्रख्यात विचारक एवं राजनैतिक विश्लेशक हैं.

Sunday, June 13, 2010

राजनेताओं, जाच करने वालों जितने ही जिम्मेदार है माननीय जस्टिस अहमदी ...

भोपाल गैस नरसंहार के जितने राजनेता दोषी है, जितने जांच कर रहे आला अफसर दोषी है उतनी ही न्यायपालिका.

बेबस गैस पीड़ित अपने परिवार को खोकर दर दर गुहार लगाते रहे, हर दरवाजे पर सोने का जूता खाये हुये सौदागर मौजूद थे और हर दरवाजे से गैस पीड़ितों को निराशा सिर्फ निराशा हाथ लगी. प्रदेश का मुख्यमंत्री विदेशी अपराधी को अपने विमान से ससम्मान दिल्ली विदा करता है, जिले का कलक्टर उसकी कार का बाडीगार्ड बनकर हवाई अड्डे तक छोड़ने आता है. देश के आला मुन्सिफ के फैसले मुजरिमों को फायदा पहूचाते हैं.

इन गैसपीड़ितों का भाग्य भी खोटा है, अगर कोई भगवान अल्लाह या गॉड जैसी कोई हस्ती है, वह भी छिपकर किसी कोने में बैठकर इन हत्यारों की मददगार बनी हुई है.

क्यों माननीय जस्टिस अहमदी इन राजनेताओं और जांच करने वाले आला अफसरों जितने अपराधी हैं?
  • माननीय जस्टिस अहमदी के 1996 के फैसले ने अभियुक्तों की सजा कम करने का रास्ता साफ करके केस को कमजोर किया
  • आमतौर पर सुप्रीम कोर्ट आरोप तय करने से गुरेज करता है फिर भी सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में माननीय जस्टिस अहमदी ने एसा किया
  • यदि आरोप ट्रायल कोर्ट में तय होते तो इस मामले में अभियुक्तों को सख्त सजा मिलने का रास्ता खुला रहता
  • माननीय जस्टिस अहमदी ने गलत बयानी की है कि इस फैसले को लेकर कोई रिव्यू पिटीशन नहीं आई. गैसपीड़ितों के ओर से दायर की गई रिव्यू पिटीशन माननीय जस्टिस अहमदी ने तुरन्त डिसमिस कर दी जिसके कि अदालती सबूत मौजूद हैं
  • अदालत में पेश न होने पर यूनियन कार्बाइड की भारत स्थित सम्पत्ति को भोपाल ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट से कुर्क कर लिया लेकिन माननीय जस्टिस अहमदी ने इस सम्पत्ति को कुर्क करने के आदेश निरस्त करके इनका विक्रय करने इसकी राशि इंग्लेंड में बने भोपाल मेमोरियल ट्रस्ट को भोपाल मेमोरियल हास्पीटल ट्रस्ट के रूप में भारतीयकरण करके इसके हवाले कर दिया गया. यहां भी यूनियन कार्बाइड फायदे में रहा.
  • जिस मामले में फैसले सुनाकर माननीय जस्टिस अहमदी ने यूनियन कार्बाइड को राहत दी रिटायरमेंट के बाद इसी ट्रस्ट के आजीवन ट्रस्टी के लाभ के पद पर सुशोभित हो गये, जो कि नैतिक रूप से उचित नहीं था.
  • 400 करोड़ से अधिक की विपुल धनराशि (US$87 मिलियन डालर) ट्रस्टी के विवेकाधिकार पर उपलब्ध थी.
भोपाल मेमोरियल हास्पीटल ट्रस्ट की गड़बडियों पर अधिक जानकारी के लिये आप यह पीडीएफ फाइल डाउनलोड कर सकते हैं

अपने फैसले बचाव में माननीय जस्टिस अहमदी कहते हैं कि यदि मेरा ड्राइवर कार का एक्सीडेंट कर देता है, मैं कहां से जिम्मेदार हुआ. माननीय जस्टिस अहमदी जी, यदि कोई कार के ब्रेक फेल होने पर जानबूझकर गाड़ी चलवाता है तो क्या गाड़ी चलवाने वाले की जिम्मेदारी नहीं है?

चेतावनियों और दुर्घटनाओं को अनदेखा करके भोपाल यूनियन कार्बाइड शहर के बीचोबीच जहां समाज के गरीब लोग रहते थे चलाया जा रहा था. लोग शिकायतें कर रहे थे, छोटी दुर्घटनाओं में कर्मचारी मर रहे थे, जागरूक पत्रकार किसी बड़ी दुर्घटना होने की संभावना के बारे में लिख रहे थे, चेता रहे थे, राजनेता यूनियन कार्बाइड से फायदा उठा रहे थे, प्रदेश का मुख्यमंत्री यूनियन कार्बाइड के श्यामला हिल्स पर बने गेस्ट हाउस का प्रयोग कर रहा था, राजनेताओं के रिश्तेदार यूनियन कार्बाइड में लाभ के पदों पर थे, विधानसभा में मामला उठने पर मंत्री बयान देता था कि यूनियन कार्बाईड एक डिब्बा नहीं है जिसे यहां से उठा कर दूसरी जगह रख दिया जाय.

सारे सबूत मौजूद थे और माननीय जस्टिस अहमदी ने इन लापरवाही के सबूतो को दरकिनार करते हुये यूनियन कार्बाइड को बचाने वाले फैसले दिये.

माननीय जस्टिस अहमदी जबाब दें यदि उनके पास कोई जबाब है

स्रोत: दैनिक भास्कर, विकीपीडिया, भोपाल.नेट

Saturday, June 12, 2010

ये हैं यूनियन कार्बाइड लि.द्वारा स्थापित ट्रस्ट के आजीवन चैयरमैन एवं एवं भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश ए. एम. अहमदी.



माननीय ए.एम. अहमदी 1994 से लेकर 1997 तक भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहे हैं.

भोपाल गैस नरसंहार के बाद केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो ने यूनियन कार्बाइड इन्डिया लि. के विरुद्द धारा 304 (II) में मुकदमा चलाने की सिफारिश की जिसमें दस साल तक की सजा का प्रावधान था लेकिन यूनियन कार्बाइड इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गई

13 सितम्बर 1996 को माननीय ए.एम. अहमदी ने यूनियन कार्बाइड इन्डिया लि, के पक्ष में फैसला दे देते हुये सिर्फ धारा 304 (A) के अनर्गत मुकदमा चलाने का निर्देश दिया. इस फैसले को सारी दुनियां में एक धब्बा माना जाता है और इसकी सारी दुनियां में मानवाधिकार, पर्यावरण एवं न्यायिक व संवेधानिक विशेषज्ञों ने निन्दा की.

इसी निर्देश के कारण भोपाल की अदालत भोपाल गैस नरसंहार के मुजरिमों को सिर्फ दो साल तक की सजा सुनाने को बेबस थी.

मुख्य न्यायाधीश पद से रिटायर होने के बाद माननीय ए.एम. अहमदी वर्तमान में यूनियन कार्बाइड लि. द्वारा ही स्थापित किये गये एक ट्रस्ट के आजीवन चैयरमैन पद पर सुशोभित हैं.


आईये 25 सालो की पीड़ा भूलकर एक पुराना गीत सुनें

देखो देखो देखो.
पैसे पर बिकता है कोर्ट देखो
कैसे ? ये डंके की चोट देखो
मुन्सिफ ही मु़ज़रिम का हामी बना
किस किस ने लूटा खसोट देखो
पैसा फैंको, तमाशा देखो.

देखो ये है उनका, हंसता गाता बन्दर
एक एक टुकड़े पर, नाच दिखाता बन्दर
दायें बायें बन्दर, नीचे ऊपर बन्दर
देख रहे भोपाली, हर कुर्सी पर बन्दर

बिगड़ी व्यवस्था की चाल देखो
किससे कहें अपना हाल देखो
हर एक डाली पे उल्लू जमा
जीना हुआ है मुहाल देखो
पैसा फैंको, तमाशा देखो.

सुनते हैं कि ये गाना दुश्मन फिल्म का हिस्सा था जिसे बाद में फिल्म से हटा दिया गया

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Friday, June 11, 2010

क्या सिर्फ अर्जुन सिंह ने किए थे सारे फैसले? -आलोक तोमर


भोपाल के हजारों अभागे गैस पीड़ितों का कानूनी श्राद्ध पूरा हो पाता उसके पहले राजनैतिक कपाल क्रियाएं शुरू हो गई है। अब यह सबको मालूम है कि अर्जुन सिंह ने यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन वारेन एंडरसन को सरकारी मेहमान की तरह बाइज्जत गिरफ्तार कर के तीन घंटे में जमानत दे कर अपने जहाज से दिल्ली विदा कर दिया था। यह भी लगभग जाहिर है कि अर्जुन सिंह हो या कोई भी दूसरा कांग्रेसी मुख्यमंत्री, इतना बड़ा फैसला सिर्फ अपने दम पर नहीं कर सकता।

खबर आई है कि अर्जुन सिंह के बेटे अजय सिंह की चुरहट लॉटरी न्यास में यूनियन कार्बाइड ने तीन करोड़ रुपए का दान दिया था। सबसे पहले तो यह कि अर्जुन सिंह अपने किए की वजह से कभी आफत में नहीं पड़े। पता नहीं राजनैतिक साजिश थी या कुछ और उनके पिता को दिल्ली में रिश्वत लेने के इल्जाम में गिरफ्तार किया गया था और जेल में ही उनका निधन हुआ। चुरहट लॉटरी बेटे सिंह का कारनामा था जिसमें एक सरकारी अधिकारी निगम साहब का दिमाग भी चला था और बताया गया कि इस लॉटरी में सब कुछ फर्जी था। आपस में ही इनाम बांट लिए गए और फिर न्यास धरा रह गया।

चुरहट को ले कर अर्जुन सिंह बहुत लंबे समय तक आफत में फंसे रहे थे। एक बार तो उन्हें सर्वोच्च न्यायालय से प्रतिकूल टिप्पणी आने के बाद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा भी देना पड़ा था। मगर अदालत की ही दूसरी टिप्पणी के बाद वे फिर अपने पद पर विराज गए। इसके बाद आज अर्जुन सिंह को कांग्रेस के हाशिए पर धकेला गया है तो इसके पीछे उनकी पुत्री बीना सिंह की राजनैतिक महात्वकांक्षा है कि वे पिछले लोकसभा चुनाव में सतना से कांग्रेसी उम्मीदवार के खिलाफ लड़ गई। कांग्रेस का उम्मीदवार हार गया।

मगर बात भोपाल हादसे की हो रही है। वारेन एंडरसन जब दिल्ली आया तो भी भारत सरकार का अपराधी था। उसे गिरफ्तार करने की बजाय होटल अशोक में प्रेसीडेंशियल सुईट में रखा गया जिसका किराया 26 साल पहले भी 12 हजार रुपए रोज होता था। राजीव गांधी ने फोन पर एंडरसन से बात भी की। मानना पड़ेगा कि राजीव गांधी ने एंडरसन को जिम्मेदारी से मुक्त नहीं कर दिया था। उन्होंने कहा था कि भोपाल में यूनियन कार्बाइड संयंत्र की रचना में कुछ तकनीकी गड़बड़िया थी जिसकी वजह से यह हादसा हुआ। एंडरसन ने तो सरेआम बयान दे कर कह दिया था कि भारतीय कर्मचारियों की गलती की वजह से यह हादसा हुआ है। इसके बाद एंडरसन किसकी मेहरबानी से वापस जाने में कामयाब हुआ, यह सवाल अब भी बाकी है।

आप गौर करें तो पाएंगे कि जो आधी अधूरी सजा भोपाल की अदालत ने दी हैं वह सब भारतीय अभियुक्तों के खिलाफ हैं। केशव महिंद्रा जरूर यूनियन कार्बाइड इंडिया के चेयरमैन थे मगर 2002 में भारतीय उद्योग जगत की निस्वार्थ सेवा करने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित करने का फैसला किया था। खुद केशव महिंद्रा ने यह सम्मान वापस कर दिया था और कहा था कि जब तक मैं भोपाल के मामले में कलंक मुक्त नहीं हो जाता तब तक मुझे यह सम्मान लेने का कोई हक नहीं हैं। क्या वाजपेयी सरकार को भी पता नहीं था कि केशव महिंद्रा इतने बडे़ नरसंहार में मुख्य अभियुक्त हैं?

अब अर्जुन सिंह पर लौट कर आइए। उनके पुराने राजनैतिक शिष्य और कांग्रेस के सबसे वरिष्ठ महासचिव दिग्विजय सिंह जो खुद भी मध्य प्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं, कह रहे हैं कि अमेरिकी दबाव में केंद्र सरकार को यह फैसला लेना पड़ा होगा। जाहिर है कि वे राजीव गांधी को अनाड़ी और दबाव के सामने झुक जाने वाला मानते हैं। राजीव गांधी की सरकार में आंतरिक सुरक्षा का जिम्मा अरुण नेहरू के पास था और हर सरकारी फैसले में अरुण सिंह की बड़ी भूमिका होती थी, ये दोनों हमारे बीच मौजूद हैं और इनसे सवाल कोई नहीं कर रहा।

कायदे से अर्जुन सिंह के पास दिल्ली से नरसिंह राव या जिस किसी का फोन एंडरसन को छोड़ने और दिल्ली भेजने के लिए आया था, उसे खुद अर्जुन सिंह को समझाना चाहिए था कि मामला कितना गंभीर हैं और इसके मुख्य अभियुक्त को यों ही छोड़ देने के कितने भयानक परिणाम निकलेंगे? मध्य प्रदेश के सरकारी जहाज के पायलट तक कह रहे हैं कि उन्हें अगर पता होता कि उनके जहाज में एंडरसन को दिल्ली छोड़ा जाना है तो वे नौकरी छोड़ देते मगर ऐसा पाप नहीं करते।

सत्यव्रत चतुर्वेदी गलत समय पर गलत बात बोलने के लिए कुख्यात हैं और उन्हांनें तो सीधे कह दिया कि दिल्ली से कोई संदेश नहीं गया और जो फैसला हुआ वह अर्जुन सिंह ने ही किया था। दिग्विजय सिंह जो कह रहे हैं वह असल में राजीव गांधी पर सारी जिम्मेदारी मढ़ने जैसा आरोप है। मगर दिग्विजय सिंह भी तर्क की सीमा के बाहर नहीं जा रहे हैं। वे कहते है कि मैं उस समय भोपाल में नहीं था इसलिए मुझे पूरी जानकारी नहीं हैं मगर इस तर्क में भी एक पेंच है। दस साल तक मुख्ममंत्री रहने के बाद अगर कोई यह दावा करे कि उसे राज्य के ही नहीं, विश्व के इतिहास की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी के तथ्य नहीं पता तो यह बात आसानी से हजम होने वाली नहीं है।

भारत के एटॉर्नी जनरल की हैसियत से सोली सोराबजी ने राय दी थी कि धारा 304 के तहत एंडरसन के प्रत्यर्पण के पूरे आधार मौजूद हैं। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को जिसमें राम जेठमलानी जैसे महान वकील कानून मंत्री थे, इस मामले में राय लेने के लिए अमेरिका की ही एक कानूनी कंपनी मिली। इस कंपनी ने मोटी फीस ली और कह दिया कि जो आधार बताए गए हैं उन्हें देखते हुए तो एंडरसन का प्रत्यर्पण नहीं हो सकता। इस राय का मूल तत्व यह था कि एंडरसन अमेरिका में बैठे थे और भोपाल में दिन प्रतिदिन क्या हो रहा है इसकी उन्हें कोई जानकारी नहीं थी। इसी तर्क के आधार पर यह भी कहा जा सकता हेै कि भारत सरकार तो दिल्ली में बैठी थी और भोपाल में क्या हो रहा है उसे क्या पता।

इस कहानी का कोई अंत नहीं हैं। सारे अभियुक्त अपनी जिंदगी के आखिरी दौर में हैं। एंडरसन नब्बे का होने जा रहा है। केशव महिंद्रा 85 पार कर चुके हैं। शिवराज सिंह या पी चिदंबरम इस मामले को फिर अदालत में ले जाएंगे और फिर फास्ट ट्रैक अदालतों ने मामला चले तो भी चार पांच साल से पहले तक नहीं होने वाला और एंडरसन और बाकी अभियुक्त कोई अमृत खा कर नहीं आए हैं जो इस पूरे मुकदमे के अंत तक दुनिया में बने ही रहेंगे। उनकी मृत्यु के साथ भोपाल के इस नाटक का अंत नहीं होने वाला।

बहुत से बहुत हम यह सबक सीख सकते हैं कि कोई भोपाल फिर से घटित नहीं हो पाए और अगर हो जाए तो न्याय के लिए 26 साल तक इंतजार नहीं करना पड़े।

श्री आलोक तोमर प्रखर जुझारू पत्रकार हैं इन्हें आप जनादेश पर पढ सकते हैं