Friday, August 27, 2010

कॉमनवेल्थ खेलों का बहिष्कार करें - चेतन भगत


कॉमनवेल्थ खेलों पर घिसी-पिटी बातें करने का मेरा कोई इरादा नहीं है। इस बारे में पहले ही बहुत लिखा जा चुका है। अलबत्ता इसके बावजूद हुआ कुछ नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि यह स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे बड़ा घपला है। लूट-खसोट के बाद भी बच निकलना एक बात है, लेकिन यह हमारे देश में ही संभव है कि कोई व्यक्ति चोरी करने के बावजूद अपनी हरकतों को बदस्तूर जारी रखे। दिल्ली एक बहुत बड़ा गड्ढा बन गई है। कॉमनवेल्थ खेलों की आधिकारिक धुन या रिंगटोन कभी न खत्म होने वाली ड्रिलिंग की ध्वनि होनी चाहिए। यदि आपको यह फिक्र है कि निर्माण कार्य समय-सीमा में पूरे हो सकेंगे या नहीं, तो जरा खेल खत्म होने के बाद दिल्लीवासियों की दुर्दशा के बारे में भी सोचें। जिन सड़कों पर खुदाई कर दी गई है, उनकी कभी मरम्मत नहीं होगी। सड़कों के ये गड्ढे दिनदहाड़े हुई इस सबसे बड़ी डकैती की निशानी होंगे।

घपले उजागर होने के बाद अब दिखावे का दौर जारी है। हमारी सरकार को तो इसमें पीएचडी हासिल है। खेल पूरे होने तक जांच रिपोर्टो, बेतुके बयानों और दोषारोपण का सिलसिला चलता रहेगा। जैसे ही खेल खत्म हुए कि बात आई-गई हो जाएगी। लोग भूल जाएंगे। शानदार समापन समारोह में बॉलीवुड के सितारों का नाच होगा, जैसे कि यह मनोरंजन लूट-खसोट का हर्जाना हो। इसी दौरान ‘भारत की छवि को बचाने’ के प्रचार अभियान भी जारी रहेंगे। यह कहा जाएगा कि किसी भी तरह खेल निपट जाएं फिर देखा जाएगा। लोगों से उम्मीद की जाएगी कि वे कॉमनवेल्थ खेलों का समर्थन करें क्योंकि आखिरकार इन खेलों पर भारत की इज्जत दांव पर लगी हुई है। भारत की महान युवा शक्ति से अपील की जाएगी कि वे बड़ी तादाद में उमड़ें और स्टेडियमों को भर दें और आयोजन को ऊर्जा प्रदान करें

लेकिन यदि हम इस आयोजन का समर्थन करते हैं, तो यह भारी गलती होगी। यह भारत के नागरिकों के लिए एक सुनहरा मौका है कि वे इस भ्रष्ट और संवेदनहीन सरकार को शर्मिदगी का अहसास कराएं। आमतौर पर भ्रष्टाचार के मामले स्थानीय होते हैं और वे पूरे देश का ध्यान नहीं खींचते। लेकिन कॉमनवेल्थ खेलों के मामले में ऐसा नहीं है। यह एक ऐसा आयोजन है, जिसमें किसी एक क्षेत्र या प्रदेश विशेष की जनता नहीं, बल्कि पूरे देश की जनता ठगी गई है। यह सही समय है, जब हम भ्रष्टाचार के खेल का पर्दाफाश कर सकते हैं और इसके लिए हम वही रास्ता अख्तियार करना होगा, जो हमें बापू ने सुझाया है : असहयोग। मैं काफी सोच-समझकर ऐसा कह रहा हूं।

कॉमनवेल्थ खेलों का बहिष्कार करें। न तो खेल देखने स्टेडियम में जाएं और न ही टीवी पर देखें। हम धोखाधड़ी के खेल में चीयरलीडर की भूमिका नहीं निभा सकते। भारतीयों का पहले ही काफी शोषण किया जा चुका है। अब हमसे यह उम्मीद करना और भी ज्यादती होगी कि इस खेल में मुस्कराते हुए मदद भी करें। यदि वे संसद से वॉकआउट कर सकते हैं, तो हम भी स्टेडियमों से वॉकआउट कर सकते हैं।

कुछ लोग कह सकते हैं कि क्या हमें देश के गौरव का ख्याल रखते हुए ऐसा करना चाहिए? इससे मुझे एक छोटी सी कहानी याद आती है। जब मैं छोटा था तो हमारे पड़ोस में एक ऐसा परिवार रहता था, जिसमें पति अपनी पत्नी की बेरहमी से पिटाई किया करता था। पत्नी चोट के निशानों को छुपाने के लिए खूब मेकअप कर लेती थी। जब भी हम उनके घर जाते, तो वे दोनों इस तरह पेश आते जैसे वे दुनिया के सबसे बेहतरीन पति-पत्नी हों। वह औरत कभी-कभी पति की तारीफ भी किया करती थी। एक बार मैंने अपनी मां से पूछा कि वह ऐसा क्यों करती है? वह पति की सच्चाई को उजागर क्यों नहीं करती? मेरी मां ने कहा- क्योंकि घर की परेशानियों को इस तरह सबके सामने उजागर करना अच्छा नहीं लगता। उस औरत को अपने परिवार की इज्जत बचानी है, इसलिए झूठ बोलना उसकी मजबूरी है। धीरे-धीरे उस औरत के जख्म नासूर बनते चले गए। उसके पति की मारपीट बढ़ती रही। एक दिन यह नौबत आ गई कि पुलिस की गाड़ी और एंबुलेंस के सायरन से हमारा मोहल्ला गूंज उठा। आदमी को पुलिस पकड़कर ले गई और औरत को एंबुलेंस में लेकर जाना पड़ा

यही हमारे देश की भी तस्वीर है। हम अन्याय और भ्रष्टाचार पर परदा डालने के लिए एक नकली चेहरा पेश करने को तैयार हैं कि हमारे यहां सब कुछ ठीक है। कॉमनवेल्थ खेलों के मामले में आयोजक उस क्रूर पति की तरह हैं और भारत की जनता उस पिटती हुई औरत की तरह। लेकिन माफ कीजिए, नए जमाने की पत्नियां अब चुपचाप पिटती नहीं रह सकतीं। कॉलेज यूनियनें, स्कूल और युवा आगे आएं और कहें कि हम इन खेलों का समर्थन नहीं करते हैं। गांधीजी ने कहा था कि अत्याचारी हम पर अत्याचार कर सकता है, लेकिन वह हमें सहयोग करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता। खेलों के ब्रांड एंबेसेडर बनने वाले चेहरों को इस आयोजन से अपना नाम जोड़ने से पहले दो बार सोचना चाहिए कि क्या वे यह चाहेंगे कि भ्रष्टाचार पर परदा डालने के लिए उनकी छवि का इस्तेमाल किया जाए? मैं विदेशी मीडिया से भी अपील करना चाहूंगा कि वे सही तस्वीर पेश करें। यह भारत की जनता का कोई दोष नहीं है। यह राजनेताओं के उस गिरोह का दोष है, जो एक गरीब मुल्क की तिजोरी पर डाका डालने में जरा भी नहीं हिचकिचाया।

उन्हें इस स्थिति का उपयोग यह समझाने के लिए करना चाहिए कि आखिर क्यों हम भारतीय ओलिंपिक में पदक नहीं जीत पाते। इसकी वजह यह नहीं है कि हमारे यहां प्रतिभाएं नहीं हैं। इसकी वजह यह है कि जो लोग भारत में खेल संस्थाओं पर काबिज हैं, उन्हें स्वर्ण पदक से ज्यादा परवाह इस बात की है कि अपने खीसे में चोरी का सोना कैसे ठूंसा जा सकता है

यह सरकार पिछले साल ही चुनाव जीतकर फिर सत्ता में आई है। उसे स्पष्ट बहुमत हासिल हुआ और उसके सहयोगी दलों में एकता है। यदि वे चाहते तो अगले पांच सालों में सुप्रशासन की मिसाल पेश कर सकते हैं। लेकिन उन्होंने उन्हें वोट देने वाले भारतीयों को महंगाई और भ्रष्टाचार के सिवा क्या दिया? क्या इसी तरह नेता हमारे युवाओं के लिए रोल मॉडल साबित होंगे? यह विपक्षी दलों के लिए भी एक बेहतरीन मौका है, बशर्ते वे एकजुट हों। यदि वे धर्म की राजनीति में नहीं उलझते हैं और साफ छवि वाले मेहनती नेताओं को आगे लाते हैं, तो उन्हें सत्ता में वापसी करते देर नहीं लगेगी।

मौजूदा सरकार भी अगर चाहे तो अपने दाग धो सकती है, लेकिन कॉमनवेल्थ खेलों का भव्य आयोजन करके नहीं। इसका एक ही तरीका है कि जो लोग भ्रष्टाचार के दोषी हैं, उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दी जाए। चाहे वे कितने ही रसूखदार क्यों न हों। यह एक नकली भव्य शो आयोजित करने का नहीं, भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म कर देने का मौका है। नहीं तो दिल्ली में जो गड्ढे खोदे गए हैं, वे ही सरकार की राजनीतिक कब्र साबित होंगे।

1 comment:

ओशो रजनीश said...

अच्छी प्रस्तुति......
http://oshotheone.blogspot.com/