Wednesday, June 16, 2010

हमारे सैकड़ों भोपाल - वेदप्रताप वैदिक


भोपाल का हादसा हमारे हिंदुस्तान का सच्चा आईना है। भोपाल ने बता दिया है कि हम लोग कैसे हैं, हमारे नेता कैसे हैं, हमारी सरकारें और अदालतें कैसी हैं। कुछ भी नहीं बदला है। ढाई सौ साल पहले हम जैसे थे, आज भी वैसे ही हैं। गुलाम, ढुलमुल और लापरवाह! अब से 264 साल पहले पांडिचेरी के फ्रांसीसी गवर्नर के चंद सिपाहियों ने कर्नाटक नवाब की 10 हजार जवानों की फौज को रौंद डाला। यूरोप के मुकाबले भारत की प्रथम पराजय का यह दौर अब भी जारी है। यूनियन कार्बाइड हो या डाउ केमिकल्स हो या परमाणु हर्जाना हो, हर मौके पर हमारे नेता गोरी चमड़ी के आगे घुटने टेक देते हैं

आखिर इसका कारण क्या है? हमारी केंद्र और राज्य की सरकारों ने वॉरेन एंडरसन को भगाने में मदद क्यों की? कीटनाशक कारखाने को मनुष्यनाशक क्यों बनने दिया? 20 हजार मृतकों और एक लाख आहतों के लिए सिर्फ 15 हजार और पांच हजार रुपए प्रति व्यक्ति मुआवजा स्वीकार क्यों किया गया? उस कारखाने के नए मालिक डाउ केमिकल्स को शेष जहरीले कचरे को साफ करने के लिए मजबूर क्यों नहीं किया गया? इन सब सवालों का जवाब एक ही है कि भारत अब भी अपनी दिमागी गुलामी से मुक्त नहीं हुआ है।

सबसे पहला सवाल तो यही है कि यूनियन कार्बाइड जैसे कारखाने भारत में लगते ही कैसे हैं? कोई भी तकनीक, कोई भी दवा, कोई भी जीवनशैली पश्चिम में चल पड़ी तो हम उसे आंख मींचकर अपना लेते हैं। हम यह क्यों नहीं सोचते कि यह नई चीज हमारे कितनी अनुकूल है। जिस कारखाने की गैस इतनी जहरीली है कि जिससे हजारों लोग मर जाएं, उससे बने कीटनाशक यदि हमारी फसलों पर छिड़के जाएंगे तो कीड़े-मकोड़े तो तुरंत मरेंगे, लेकिन क्या उससे मनुष्यों के मरने का भी अदृश्य और धीमा इंतजाम नहीं होगा?

इसी प्रकार हमारी सरकारें आजकल परमाणु ऊर्जा के पीछे हाथ धोकर पड़ी हुई हैं। वे किसी भी कीमत पर उसे भारत लाकर उससे बिजली पैदा करना चाहती हैं। बिजली पैदा करने के बाकी सभी तरीके अब बेकार लगने लगे हैं। यह बेहद खर्चीली और खतरनाक तकनीक यदि किसी दिन कुपित हो गई तो एक ही रात में सैकड़ों भोपाल हो जाएंगे। रूस के चेनरेबिल और न्यूयॉर्क के थ्रीमाइललांग आइलैंड में हुए परमाणु रिसाव तो किसी बड़ी भयावह फिल्म का एक छोटा-सा ट्रेलर भर हैं। यदि हमारी परमाणु भट्टियों में कभी रिसाव हो गया तो पता नहीं कितने शहर और गांव या प्रांत के प्रांत साफ हो जाएंगे।

इतनी भयावह तकनीकों को भारत लाने के पहले क्या हमारी तैयारी ठीक-ठाक होती है? बिल्कुल नहीं। परमाणु बिजली और जहरीले कीटनाशकों की बात जाने दें, हमारे देश में जितनी मौतें रेल और कारों से होती हैं, दुनिया में कहीं नहीं होतीं। अकेले मुंबई शहर में पिछले पांच साल में रेल दुर्घटनाओं में 20706 लोग मारे गए। भोपाल में तो उस रात सिर्फ 3800 लोग मारे गए थे और 20 हजार का आंकड़ा तो कई वर्षो का है। यदि पूरे देश पर नजर दौड़ाएं तो लगेगा कि भारत में हर साल एक न एक भोपाल होता ही रहता है। इस भोपाल का कारण कोई आसमानी-सुलतानी नहीं है, बल्कि इंसानी है।

इंसानी लापरवाही है। इसे रोकने का तगड़ा इंतजाम भारत में कहीं नहीं है। यूनियन कार्बाइड के टैंक 610 और 611 को फूटना ही है, उनमें से गैस रिसेगी ही यह पहले से पता था, फिर भी कोई सावधानी नहीं बरती गई। इस लापरवाही के लिए सिर्फ यूनियन कार्बाइड ही जिम्मेदार नहीं है, हमारी सरकारें भी पूरी तरह जिम्मेदार हैं। यूनियन कार्बाइड का कारखाना किसी देश का दूतावास नहीं है कि उसे भारत के क्षेत्राधिकार से बाहर मान लिया जाए। भोपाल की मौतों के लिए जितनी जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड है, उतनी ही भारत सरकार भी है। जैसे रेल और कार दुर्घटनाओं के कारण इस देश में कोई फांसी पर नहीं लटकता, वैसे ही वॉरेन एंडरसन भी निकल भागता है।

एंडरसन के पलायन पर जैसी शर्मनाक तू-तू-मैं-मैं हमारे यहां हो रही है, वैसी क्या किसी लोकतंत्र में होती है? अगर भारत की जगह जापान होता तो कई कलंकित नेता या उन मृत नेताओं के रिश्तेदार आत्महत्या कर लेते। हमारे यहां बेशर्मी का बोलबाला है। हमारे नेताओं को दिसंबर के उस पहले सप्ताह में तय करना था कि किसका कष्ट ज्यादा बड़ा है, एंडरसन का या लाखों भोपालियों का? उन्होंने अपने पत्ते एंडरसन के पक्ष में डाल दिए? आखिर क्यों? क्या इसलिए नहीं कि भोपाल में मरनेवालों के जीवन की कीमत कीड़े-मकोड़े से ज्यादा नहीं थी और एंडरसन गौरांग शक्ति और श्रेष्ठता का प्रतीक था।

हमारे भद्रलोक के तार अब भी पश्चिम से जुड़े हैं। दिमागी गुलामी ज्यों की त्यों बरकरार है। यदि एंडरसन गिरफ्तार हो जाता तो उसे फांसी पर चढ़ाया जाता या नहीं, लेकिन यह जरूर होता कि यूनियन कार्बाइड को 15 हजार रुपए प्रति व्यक्ति नहीं, कम से कम 15 लाख रुपए प्रति व्यक्ति मुआवजा देने के लिए मजबूर होना पड़ता। यह मुआवजा भी मामूली ही होता, क्योंकि अभी मैक्सिको की खाड़ी में जो तेल रिसाव चल रहा है, उसके कारण मरने वाले दर्जन भर लोगों को करोड़ों रुपए प्रति व्यक्ति के हिसाब से मुआवजा मिलने वाला है। असली बात यह है कि औसत हिंदुस्तानी की जान बहुत सस्ती है।

यही हादसा भोपाल में अगर श्यामला हिल्स और दिल्ली में रायसीना हिल्स के पास हो जाता तो नक्शा ही कुछ दूसरा होता। ये नेताओं के मोहल्ले हैं। भोपाल में वह गरीब-गुरबों का मोहल्ला था। ये लोग बेजुबान और बेअसर हैं। जिंदगी में तो वे जानवरों की तरह गुजर करते हैं, मौत में भी हमने उन्हें जानवर बना दिया है।

यही हमारा लोकतंत्र है। हमारी अदालतें काफी ठीक-ठाक हैं लेकिन जब गरीब और बेजुबान का मामला हो तो उनकी निर्ममता देखने लायक होती है। सामूहिक हत्या को कार दुर्घटना जैसा रूप देने वाली हमारी सबसे बड़ी अदालत को क्या कहा जाए?

क्या ये अदालतें हमारे प्रधानमंत्रियों के हत्यारों के प्रति भी वैसी ही लापरवाही दिखा सकती थीं, जैसी कि उन्होंने 20 हजार भोपालियों की हत्या के प्रति दिखाई है? पता नहीं, हमारी सरकारों और अदालतों पर डॉलर का चाबुक कितना चला, लेकिन यह तर्क बिल्कुल बोदा है कि अमेरिकी पूंजी भारत से पलायन न कर जाए, इस डर के मारे ही हमारी सरकारों ने एंडरसन को अपना दामाद बना लिया। पता नहीं हम क्या करेंगे इस विदेशी पूंजी का?

जो विदेशी पूंजी हमारे नागरिकों को कीड़ा-मकोड़ा बनाती हो, उसे हम दूर से ही नमस्कार क्यों नहीं करते? यह ठीक है कि जो मर गए, वे लौटने वाले नहीं और यह भी साफ है कि जो भुगत रहे हैं, उन्हें कोई राहत मिलने वाली नहीं है लेकिन चिंता यही है कि हमारी सरकारें और अदालतें अब भी भावी भोपालों और भावी चेर्नोबिलों से सचेत हुई हैं या नहीं? यदि सचेत हुई होतीं तो परमाणु हर्जाने के सवाल पर हमारा ऊंट जीरा क्यों चबा रहा होता?

डा. वेद प्रताप वैदिक प्रख्यात विचारक एवं राजनैतिक विश्लेशक हैं.

1 comment:

आभा said...

सही कह रहे हैं आप ,हम शायद अब भी गोरी चमड़ी के गुलाम है, वर्ना एडरसन जब उम्र के हिसाब से मौत की कगार पर खड़ा है तब इस खुलासे का क्या मतलब, और उसे ले जाते हुए पायलट की सफाई यह की मेरी नौकरी चली जाती। जब देश को चलाने बाले देश के साथ गंद्दारी कर रहे हैं तो हर कोई बस अपनी ही देहरी तक की ही सुरक्षा का जुगाड़ सोचेगा.हम धन्य देश के वाशी हैं