Thursday, June 17, 2010
गैस त्रासदी मामले में मूल दस्तावेजों से हेराफेरी
गैस त्रासदी मामले में लापरवाही से हुई मौत की धारा 304ए में एफआईआर कायम की गई। यूनियन कार्बाइड के पांच अधिकारियों को गिरफ्तार भी किया गया। लेकिन दो दिन बाद जब उनमें से चार लोगों को अदालत में पेश कर रिमांड पर लिया गया तो पुलिस और अदालत दोनों के दस्तावेजों में 304ए के अलावा गैरइरादतन हत्या की धारा 304 और 278 व 429 भी थीं। सात दिसंबर को जब वारेन एंडरसन को दिए गए मुचलके पर भी इन्हीं चार धाराओं का जिक्र है।
एफआईआर बदली या धारा?:
विधि विशेषज्ञों के अनुसार रिमांड लेते समय केस डायरी और मूल एफआईआर भी अदालत में पेश की जाती हैं। अगर मूल एफआईआर धारा 304ए में दर्ज की गई तो रिमांड धारा 304 में कैसे ली गई? क्या केस डायरी में मामला गैरइरादतन हत्या का था? अगर यह मानवीय भूल थी तो एंडरसन के मुचलके में भी धारा 304 का जिक्र कैसे है? क्या मूल एफआईआर 304ए के बजाए गैरइरादतन हत्या की धारा 304 में लिखी गई थी जिसमें 10 साल तक की सजा का प्रावधान है? क्या मूल एफआईआर को बदल दिया गया? या फिर मूल एफआईआर में दर्ज एकमात्र धारा 304 को ही दो साल की सजा वाली धारा 304ए में बदल दिया गया?
क्या हुई खोजबीन?:
एक बार को मान लिया जाए कि एफआईआर तो 304ए में दर्ज हुई थी और जब पुलिस ने खोजबीन में पाया कि मामला तो गैरइरादतन हत्या का है तो इसमें अन्य गंभीर धाराएं भी जोड़ दी। लेकिन यदि ऐसा होता तो यह केस डायरी में लिखा होता और रिमांड आर्डर में भी। लेकिन यह कहीं भी नहीं लिखा गया कि इतनी गंभीर अपराध की धाराएं क्यों जोड़ी गईं और कब?
कैसे छोड़ा एंडरसन को?:
अगर मामला कमजोर किए जाने प्रयास था तो एंडरसन को कमजोर धारा के बजाए गैरइरादतन हत्या के मामले में क्यों गिरफ्तार किया गया? एक बार फिर मानवीय भूल? तो फिर गैरजमानती अपराध के मामले में उसे निजी मुचलके पर कैसे छोड़ दिया गया? जबकि उसके साथ ही गिरफ्तार केशुब महिन्द्रा और विजय गोखले को 8 दिन तक हिरासत में रहने के बाद हाईकोर्ट से जमानत लेनी पड़ी।
क्यों किया नजरअंदाज? :
भोपाल स्थित लॉ इंस्टीटच्यूट में कानून के जानकार आश्चर्य करते हैं कि पीड़ितों के ढेरों हमदर्द, इतने पुलिस अफसर, काबिल वकीलों और विद्वान न्यायाधीश इतनी कमजोरियों को 25 साल तक क्यों नजरअंदाज करते रहे?
पूर्व जिला न्यायाधीश रेणु शर्मा कहती हैं कि यदि यह सिद्ध हो जाए कि एफआईआर बदली गई तो जिम्मेदार के खिलाफ धारा 204 के तहत आपराधिक मामला बनता है। जांच में यदि मालूम चलता है कि ऐसा उच्च अफसरों के कहने पर किया गया तो उनके खिलाफ भी आपराधिक केस दर्ज होना चाहिए।
हुई है हेराफेरी?:
राज्य सरकार की विधि विशेषज्ञों की समिति के सदस्य शांतिलाल लोढ़ा मानते हैं कि इन दस्तावेजों में भारी हेराफेरी की गई हैं। उनका कहना है कि टाइपराइटर पर लिखी गई मूल एफआईआर तो गैरइरादतन हत्या की ही थी लेकिन बाद में इसमें हाथ से ए जोड़कर धारा 304ए का मामला बना दिया गया।
उनका कहना है कि न सिर्फ तत्कालीन एसएचओ बल्कि एसपी व सीबीआई के अफसरों के खिलाफ सरकारी दस्तावेजों से छेड़छाड़, अभियुक्त को बचाने, जांच को प्रभावित करने और कर्तव्य पूरा न करने की धाराएं 108, 119, 120, 201 ओर 222 के तहत केस दर्ज कर जांच आरंभ होनी चाहिए।
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साभार प्रस्तुति: कीर्ति गुप्ता का यह आलेख आज भोपाल दैनिक भास्कर के प्रथम पन्ने पर प्रकाशित हुआ है.
Wednesday, June 16, 2010
हमारे सैकड़ों भोपाल - वेदप्रताप वैदिक
भोपाल का हादसा हमारे हिंदुस्तान का सच्चा आईना है। भोपाल ने बता दिया है कि हम लोग कैसे हैं, हमारे नेता कैसे हैं, हमारी सरकारें और अदालतें कैसी हैं। कुछ भी नहीं बदला है। ढाई सौ साल पहले हम जैसे थे, आज भी वैसे ही हैं। गुलाम, ढुलमुल और लापरवाह! अब से 264 साल पहले पांडिचेरी के फ्रांसीसी गवर्नर के चंद सिपाहियों ने कर्नाटक नवाब की 10 हजार जवानों की फौज को रौंद डाला। यूरोप के मुकाबले भारत की प्रथम पराजय का यह दौर अब भी जारी है। यूनियन कार्बाइड हो या डाउ केमिकल्स हो या परमाणु हर्जाना हो, हर मौके पर हमारे नेता गोरी चमड़ी के आगे घुटने टेक देते हैं।
आखिर इसका कारण क्या है? हमारी केंद्र और राज्य की सरकारों ने वॉरेन एंडरसन को भगाने में मदद क्यों की? कीटनाशक कारखाने को मनुष्यनाशक क्यों बनने दिया? 20 हजार मृतकों और एक लाख आहतों के लिए सिर्फ 15 हजार और पांच हजार रुपए प्रति व्यक्ति मुआवजा स्वीकार क्यों किया गया? उस कारखाने के नए मालिक डाउ केमिकल्स को शेष जहरीले कचरे को साफ करने के लिए मजबूर क्यों नहीं किया गया? इन सब सवालों का जवाब एक ही है कि भारत अब भी अपनी दिमागी गुलामी से मुक्त नहीं हुआ है।
सबसे पहला सवाल तो यही है कि यूनियन कार्बाइड जैसे कारखाने भारत में लगते ही कैसे हैं? कोई भी तकनीक, कोई भी दवा, कोई भी जीवनशैली पश्चिम में चल पड़ी तो हम उसे आंख मींचकर अपना लेते हैं। हम यह क्यों नहीं सोचते कि यह नई चीज हमारे कितनी अनुकूल है। जिस कारखाने की गैस इतनी जहरीली है कि जिससे हजारों लोग मर जाएं, उससे बने कीटनाशक यदि हमारी फसलों पर छिड़के जाएंगे तो कीड़े-मकोड़े तो तुरंत मरेंगे, लेकिन क्या उससे मनुष्यों के मरने का भी अदृश्य और धीमा इंतजाम नहीं होगा?
इसी प्रकार हमारी सरकारें आजकल परमाणु ऊर्जा के पीछे हाथ धोकर पड़ी हुई हैं। वे किसी भी कीमत पर उसे भारत लाकर उससे बिजली पैदा करना चाहती हैं। बिजली पैदा करने के बाकी सभी तरीके अब बेकार लगने लगे हैं। यह बेहद खर्चीली और खतरनाक तकनीक यदि किसी दिन कुपित हो गई तो एक ही रात में सैकड़ों भोपाल हो जाएंगे। रूस के चेनरेबिल और न्यूयॉर्क के थ्रीमाइललांग आइलैंड में हुए परमाणु रिसाव तो किसी बड़ी भयावह फिल्म का एक छोटा-सा ट्रेलर भर हैं। यदि हमारी परमाणु भट्टियों में कभी रिसाव हो गया तो पता नहीं कितने शहर और गांव या प्रांत के प्रांत साफ हो जाएंगे।
इतनी भयावह तकनीकों को भारत लाने के पहले क्या हमारी तैयारी ठीक-ठाक होती है? बिल्कुल नहीं। परमाणु बिजली और जहरीले कीटनाशकों की बात जाने दें, हमारे देश में जितनी मौतें रेल और कारों से होती हैं, दुनिया में कहीं नहीं होतीं। अकेले मुंबई शहर में पिछले पांच साल में रेल दुर्घटनाओं में 20706 लोग मारे गए। भोपाल में तो उस रात सिर्फ 3800 लोग मारे गए थे और 20 हजार का आंकड़ा तो कई वर्षो का है। यदि पूरे देश पर नजर दौड़ाएं तो लगेगा कि भारत में हर साल एक न एक भोपाल होता ही रहता है। इस भोपाल का कारण कोई आसमानी-सुलतानी नहीं है, बल्कि इंसानी है।
इंसानी लापरवाही है। इसे रोकने का तगड़ा इंतजाम भारत में कहीं नहीं है। यूनियन कार्बाइड के टैंक 610 और 611 को फूटना ही है, उनमें से गैस रिसेगी ही यह पहले से पता था, फिर भी कोई सावधानी नहीं बरती गई। इस लापरवाही के लिए सिर्फ यूनियन कार्बाइड ही जिम्मेदार नहीं है, हमारी सरकारें भी पूरी तरह जिम्मेदार हैं। यूनियन कार्बाइड का कारखाना किसी देश का दूतावास नहीं है कि उसे भारत के क्षेत्राधिकार से बाहर मान लिया जाए। भोपाल की मौतों के लिए जितनी जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड है, उतनी ही भारत सरकार भी है। जैसे रेल और कार दुर्घटनाओं के कारण इस देश में कोई फांसी पर नहीं लटकता, वैसे ही वॉरेन एंडरसन भी निकल भागता है।
एंडरसन के पलायन पर जैसी शर्मनाक तू-तू-मैं-मैं हमारे यहां हो रही है, वैसी क्या किसी लोकतंत्र में होती है? अगर भारत की जगह जापान होता तो कई कलंकित नेता या उन मृत नेताओं के रिश्तेदार आत्महत्या कर लेते। हमारे यहां बेशर्मी का बोलबाला है। हमारे नेताओं को दिसंबर के उस पहले सप्ताह में तय करना था कि किसका कष्ट ज्यादा बड़ा है, एंडरसन का या लाखों भोपालियों का? उन्होंने अपने पत्ते एंडरसन के पक्ष में डाल दिए? आखिर क्यों? क्या इसलिए नहीं कि भोपाल में मरनेवालों के जीवन की कीमत कीड़े-मकोड़े से ज्यादा नहीं थी और एंडरसन गौरांग शक्ति और श्रेष्ठता का प्रतीक था।
हमारे भद्रलोक के तार अब भी पश्चिम से जुड़े हैं। दिमागी गुलामी ज्यों की त्यों बरकरार है। यदि एंडरसन गिरफ्तार हो जाता तो उसे फांसी पर चढ़ाया जाता या नहीं, लेकिन यह जरूर होता कि यूनियन कार्बाइड को 15 हजार रुपए प्रति व्यक्ति नहीं, कम से कम 15 लाख रुपए प्रति व्यक्ति मुआवजा देने के लिए मजबूर होना पड़ता। यह मुआवजा भी मामूली ही होता, क्योंकि अभी मैक्सिको की खाड़ी में जो तेल रिसाव चल रहा है, उसके कारण मरने वाले दर्जन भर लोगों को करोड़ों रुपए प्रति व्यक्ति के हिसाब से मुआवजा मिलने वाला है। असली बात यह है कि औसत हिंदुस्तानी की जान बहुत सस्ती है।
यही हादसा भोपाल में अगर श्यामला हिल्स और दिल्ली में रायसीना हिल्स के पास हो जाता तो नक्शा ही कुछ दूसरा होता। ये नेताओं के मोहल्ले हैं। भोपाल में वह गरीब-गुरबों का मोहल्ला था। ये लोग बेजुबान और बेअसर हैं। जिंदगी में तो वे जानवरों की तरह गुजर करते हैं, मौत में भी हमने उन्हें जानवर बना दिया है।
यही हमारा लोकतंत्र है। हमारी अदालतें काफी ठीक-ठाक हैं लेकिन जब गरीब और बेजुबान का मामला हो तो उनकी निर्ममता देखने लायक होती है। सामूहिक हत्या को कार दुर्घटना जैसा रूप देने वाली हमारी सबसे बड़ी अदालत को क्या कहा जाए?
क्या ये अदालतें हमारे प्रधानमंत्रियों के हत्यारों के प्रति भी वैसी ही लापरवाही दिखा सकती थीं, जैसी कि उन्होंने 20 हजार भोपालियों की हत्या के प्रति दिखाई है? पता नहीं, हमारी सरकारों और अदालतों पर डॉलर का चाबुक कितना चला, लेकिन यह तर्क बिल्कुल बोदा है कि अमेरिकी पूंजी भारत से पलायन न कर जाए, इस डर के मारे ही हमारी सरकारों ने एंडरसन को अपना दामाद बना लिया। पता नहीं हम क्या करेंगे इस विदेशी पूंजी का?
जो विदेशी पूंजी हमारे नागरिकों को कीड़ा-मकोड़ा बनाती हो, उसे हम दूर से ही नमस्कार क्यों नहीं करते? यह ठीक है कि जो मर गए, वे लौटने वाले नहीं और यह भी साफ है कि जो भुगत रहे हैं, उन्हें कोई राहत मिलने वाली नहीं है लेकिन चिंता यही है कि हमारी सरकारें और अदालतें अब भी भावी भोपालों और भावी चेर्नोबिलों से सचेत हुई हैं या नहीं? यदि सचेत हुई होतीं तो परमाणु हर्जाने के सवाल पर हमारा ऊंट जीरा क्यों चबा रहा होता?
डा. वेद प्रताप वैदिक प्रख्यात विचारक एवं राजनैतिक विश्लेशक हैं.
Sunday, June 13, 2010
राजनेताओं, जाच करने वालों जितने ही जिम्मेदार है माननीय जस्टिस अहमदी ...
भोपाल गैस नरसंहार के जितने राजनेता दोषी है, जितने जांच कर रहे आला अफसर दोषी है उतनी ही न्यायपालिका.
बेबस गैस पीड़ित अपने परिवार को खोकर दर दर गुहार लगाते रहे, हर दरवाजे पर सोने का जूता खाये हुये सौदागर मौजूद थे और हर दरवाजे से गैस पीड़ितों को निराशा सिर्फ निराशा हाथ लगी. प्रदेश का मुख्यमंत्री विदेशी अपराधी को अपने विमान से ससम्मान दिल्ली विदा करता है, जिले का कलक्टर उसकी कार का बाडीगार्ड बनकर हवाई अड्डे तक छोड़ने आता है. देश के आला मुन्सिफ के फैसले मुजरिमों को फायदा पहूचाते हैं.
इन गैसपीड़ितों का भाग्य भी खोटा है, अगर कोई भगवान अल्लाह या गॉड जैसी कोई हस्ती है, वह भी छिपकर किसी कोने में बैठकर इन हत्यारों की मददगार बनी हुई है.
क्यों माननीय जस्टिस अहमदी इन राजनेताओं और जांच करने वाले आला अफसरों जितने अपराधी हैं?
अपने फैसले बचाव में माननीय जस्टिस अहमदी कहते हैं कि यदि मेरा ड्राइवर कार का एक्सीडेंट कर देता है, मैं कहां से जिम्मेदार हुआ. माननीय जस्टिस अहमदी जी, यदि कोई कार के ब्रेक फेल होने पर जानबूझकर गाड़ी चलवाता है तो क्या गाड़ी चलवाने वाले की जिम्मेदारी नहीं है?
चेतावनियों और दुर्घटनाओं को अनदेखा करके भोपाल यूनियन कार्बाइड शहर के बीचोबीच जहां समाज के गरीब लोग रहते थे चलाया जा रहा था. लोग शिकायतें कर रहे थे, छोटी दुर्घटनाओं में कर्मचारी मर रहे थे, जागरूक पत्रकार किसी बड़ी दुर्घटना होने की संभावना के बारे में लिख रहे थे, चेता रहे थे, राजनेता यूनियन कार्बाइड से फायदा उठा रहे थे, प्रदेश का मुख्यमंत्री यूनियन कार्बाइड के श्यामला हिल्स पर बने गेस्ट हाउस का प्रयोग कर रहा था, राजनेताओं के रिश्तेदार यूनियन कार्बाइड में लाभ के पदों पर थे, विधानसभा में मामला उठने पर मंत्री बयान देता था कि यूनियन कार्बाईड एक डिब्बा नहीं है जिसे यहां से उठा कर दूसरी जगह रख दिया जाय.
सारे सबूत मौजूद थे और माननीय जस्टिस अहमदी ने इन लापरवाही के सबूतो को दरकिनार करते हुये यूनियन कार्बाइड को बचाने वाले फैसले दिये.
माननीय जस्टिस अहमदी जबाब दें यदि उनके पास कोई जबाब है
स्रोत: दैनिक भास्कर, विकीपीडिया, भोपाल.नेट
बेबस गैस पीड़ित अपने परिवार को खोकर दर दर गुहार लगाते रहे, हर दरवाजे पर सोने का जूता खाये हुये सौदागर मौजूद थे और हर दरवाजे से गैस पीड़ितों को निराशा सिर्फ निराशा हाथ लगी. प्रदेश का मुख्यमंत्री विदेशी अपराधी को अपने विमान से ससम्मान दिल्ली विदा करता है, जिले का कलक्टर उसकी कार का बाडीगार्ड बनकर हवाई अड्डे तक छोड़ने आता है. देश के आला मुन्सिफ के फैसले मुजरिमों को फायदा पहूचाते हैं.
इन गैसपीड़ितों का भाग्य भी खोटा है, अगर कोई भगवान अल्लाह या गॉड जैसी कोई हस्ती है, वह भी छिपकर किसी कोने में बैठकर इन हत्यारों की मददगार बनी हुई है.
क्यों माननीय जस्टिस अहमदी इन राजनेताओं और जांच करने वाले आला अफसरों जितने अपराधी हैं?
- माननीय जस्टिस अहमदी के 1996 के फैसले ने अभियुक्तों की सजा कम करने का रास्ता साफ करके केस को कमजोर किया
- आमतौर पर सुप्रीम कोर्ट आरोप तय करने से गुरेज करता है फिर भी सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में माननीय जस्टिस अहमदी ने एसा किया
- यदि आरोप ट्रायल कोर्ट में तय होते तो इस मामले में अभियुक्तों को सख्त सजा मिलने का रास्ता खुला रहता
- माननीय जस्टिस अहमदी ने गलत बयानी की है कि इस फैसले को लेकर कोई रिव्यू पिटीशन नहीं आई. गैसपीड़ितों के ओर से दायर की गई रिव्यू पिटीशन माननीय जस्टिस अहमदी ने तुरन्त डिसमिस कर दी जिसके कि अदालती सबूत मौजूद हैं
- अदालत में पेश न होने पर यूनियन कार्बाइड की भारत स्थित सम्पत्ति को भोपाल ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट से कुर्क कर लिया लेकिन माननीय जस्टिस अहमदी ने इस सम्पत्ति को कुर्क करने के आदेश निरस्त करके इनका विक्रय करने इसकी राशि इंग्लेंड में बने भोपाल मेमोरियल ट्रस्ट को भोपाल मेमोरियल हास्पीटल ट्रस्ट के रूप में भारतीयकरण करके इसके हवाले कर दिया गया. यहां भी यूनियन कार्बाइड फायदे में रहा.
- जिस मामले में फैसले सुनाकर माननीय जस्टिस अहमदी ने यूनियन कार्बाइड को राहत दी रिटायरमेंट के बाद इसी ट्रस्ट के आजीवन ट्रस्टी के लाभ के पद पर सुशोभित हो गये, जो कि नैतिक रूप से उचित नहीं था.
- 400 करोड़ से अधिक की विपुल धनराशि (US$87 मिलियन डालर) ट्रस्टी के विवेकाधिकार पर उपलब्ध थी.
अपने फैसले बचाव में माननीय जस्टिस अहमदी कहते हैं कि यदि मेरा ड्राइवर कार का एक्सीडेंट कर देता है, मैं कहां से जिम्मेदार हुआ. माननीय जस्टिस अहमदी जी, यदि कोई कार के ब्रेक फेल होने पर जानबूझकर गाड़ी चलवाता है तो क्या गाड़ी चलवाने वाले की जिम्मेदारी नहीं है?
चेतावनियों और दुर्घटनाओं को अनदेखा करके भोपाल यूनियन कार्बाइड शहर के बीचोबीच जहां समाज के गरीब लोग रहते थे चलाया जा रहा था. लोग शिकायतें कर रहे थे, छोटी दुर्घटनाओं में कर्मचारी मर रहे थे, जागरूक पत्रकार किसी बड़ी दुर्घटना होने की संभावना के बारे में लिख रहे थे, चेता रहे थे, राजनेता यूनियन कार्बाइड से फायदा उठा रहे थे, प्रदेश का मुख्यमंत्री यूनियन कार्बाइड के श्यामला हिल्स पर बने गेस्ट हाउस का प्रयोग कर रहा था, राजनेताओं के रिश्तेदार यूनियन कार्बाइड में लाभ के पदों पर थे, विधानसभा में मामला उठने पर मंत्री बयान देता था कि यूनियन कार्बाईड एक डिब्बा नहीं है जिसे यहां से उठा कर दूसरी जगह रख दिया जाय.
सारे सबूत मौजूद थे और माननीय जस्टिस अहमदी ने इन लापरवाही के सबूतो को दरकिनार करते हुये यूनियन कार्बाइड को बचाने वाले फैसले दिये.
माननीय जस्टिस अहमदी जबाब दें यदि उनके पास कोई जबाब है
स्रोत: दैनिक भास्कर, विकीपीडिया, भोपाल.नेट
Saturday, June 12, 2010
ये हैं यूनियन कार्बाइड लि.द्वारा स्थापित ट्रस्ट के आजीवन चैयरमैन एवं एवं भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश ए. एम. अहमदी.
माननीय ए.एम. अहमदी 1994 से लेकर 1997 तक भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहे हैं.
भोपाल गैस नरसंहार के बाद केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो ने यूनियन कार्बाइड इन्डिया लि. के विरुद्द धारा 304 (II) में मुकदमा चलाने की सिफारिश की जिसमें दस साल तक की सजा का प्रावधान था लेकिन यूनियन कार्बाइड इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गई
13 सितम्बर 1996 को माननीय ए.एम. अहमदी ने यूनियन कार्बाइड इन्डिया लि, के पक्ष में फैसला दे देते हुये सिर्फ धारा 304 (A) के अनर्गत मुकदमा चलाने का निर्देश दिया. इस फैसले को सारी दुनियां में एक धब्बा माना जाता है और इसकी सारी दुनियां में मानवाधिकार, पर्यावरण एवं न्यायिक व संवेधानिक विशेषज्ञों ने निन्दा की.
इसी निर्देश के कारण भोपाल की अदालत भोपाल गैस नरसंहार के मुजरिमों को सिर्फ दो साल तक की सजा सुनाने को बेबस थी.
मुख्य न्यायाधीश पद से रिटायर होने के बाद माननीय ए.एम. अहमदी वर्तमान में यूनियन कार्बाइड लि. द्वारा ही स्थापित किये गये एक ट्रस्ट के आजीवन चैयरमैन पद पर सुशोभित हैं.
आईये 25 सालो की पीड़ा भूलकर एक पुराना गीत सुनें
देखो देखो देखो.
पैसे पर बिकता है कोर्ट देखो
कैसे ? ये डंके की चोट देखो
मुन्सिफ ही मु़ज़रिम का हामी बना
किस किस ने लूटा खसोट देखो
पैसा फैंको, तमाशा देखो.
देखो ये है उनका, हंसता गाता बन्दर
एक एक टुकड़े पर, नाच दिखाता बन्दर
दायें बायें बन्दर, नीचे ऊपर बन्दर
देख रहे भोपाली, हर कुर्सी पर बन्दर
बिगड़ी व्यवस्था की चाल देखो
किससे कहें अपना हाल देखो
हर एक डाली पे उल्लू जमा
जीना हुआ है मुहाल देखो
पैसा फैंको, तमाशा देखो.
पैसे पर बिकता है कोर्ट देखो
कैसे ? ये डंके की चोट देखो
मुन्सिफ ही मु़ज़रिम का हामी बना
किस किस ने लूटा खसोट देखो
पैसा फैंको, तमाशा देखो.
देखो ये है उनका, हंसता गाता बन्दर
एक एक टुकड़े पर, नाच दिखाता बन्दर
दायें बायें बन्दर, नीचे ऊपर बन्दर
देख रहे भोपाली, हर कुर्सी पर बन्दर
बिगड़ी व्यवस्था की चाल देखो
किससे कहें अपना हाल देखो
हर एक डाली पे उल्लू जमा
जीना हुआ है मुहाल देखो
पैसा फैंको, तमाशा देखो.
सुनते हैं कि ये गाना दुश्मन फिल्म का हिस्सा था जिसे बाद में फिल्म से हटा दिया गया
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Friday, June 11, 2010
क्या सिर्फ अर्जुन सिंह ने किए थे सारे फैसले? -आलोक तोमर
भोपाल के हजारों अभागे गैस पीड़ितों का कानूनी श्राद्ध पूरा हो पाता उसके पहले राजनैतिक कपाल क्रियाएं शुरू हो गई है। अब यह सबको मालूम है कि अर्जुन सिंह ने यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन वारेन एंडरसन को सरकारी मेहमान की तरह बाइज्जत गिरफ्तार कर के तीन घंटे में जमानत दे कर अपने जहाज से दिल्ली विदा कर दिया था। यह भी लगभग जाहिर है कि अर्जुन सिंह हो या कोई भी दूसरा कांग्रेसी मुख्यमंत्री, इतना बड़ा फैसला सिर्फ अपने दम पर नहीं कर सकता।
खबर आई है कि अर्जुन सिंह के बेटे अजय सिंह की चुरहट लॉटरी न्यास में यूनियन कार्बाइड ने तीन करोड़ रुपए का दान दिया था। सबसे पहले तो यह कि अर्जुन सिंह अपने किए की वजह से कभी आफत में नहीं पड़े। पता नहीं राजनैतिक साजिश थी या कुछ और उनके पिता को दिल्ली में रिश्वत लेने के इल्जाम में गिरफ्तार किया गया था और जेल में ही उनका निधन हुआ। चुरहट लॉटरी बेटे सिंह का कारनामा था जिसमें एक सरकारी अधिकारी निगम साहब का दिमाग भी चला था और बताया गया कि इस लॉटरी में सब कुछ फर्जी था। आपस में ही इनाम बांट लिए गए और फिर न्यास धरा रह गया।
चुरहट को ले कर अर्जुन सिंह बहुत लंबे समय तक आफत में फंसे रहे थे। एक बार तो उन्हें सर्वोच्च न्यायालय से प्रतिकूल टिप्पणी आने के बाद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा भी देना पड़ा था। मगर अदालत की ही दूसरी टिप्पणी के बाद वे फिर अपने पद पर विराज गए। इसके बाद आज अर्जुन सिंह को कांग्रेस के हाशिए पर धकेला गया है तो इसके पीछे उनकी पुत्री बीना सिंह की राजनैतिक महात्वकांक्षा है कि वे पिछले लोकसभा चुनाव में सतना से कांग्रेसी उम्मीदवार के खिलाफ लड़ गई। कांग्रेस का उम्मीदवार हार गया।
मगर बात भोपाल हादसे की हो रही है। वारेन एंडरसन जब दिल्ली आया तो भी भारत सरकार का अपराधी था। उसे गिरफ्तार करने की बजाय होटल अशोक में प्रेसीडेंशियल सुईट में रखा गया जिसका किराया 26 साल पहले भी 12 हजार रुपए रोज होता था। राजीव गांधी ने फोन पर एंडरसन से बात भी की। मानना पड़ेगा कि राजीव गांधी ने एंडरसन को जिम्मेदारी से मुक्त नहीं कर दिया था। उन्होंने कहा था कि भोपाल में यूनियन कार्बाइड संयंत्र की रचना में कुछ तकनीकी गड़बड़िया थी जिसकी वजह से यह हादसा हुआ। एंडरसन ने तो सरेआम बयान दे कर कह दिया था कि भारतीय कर्मचारियों की गलती की वजह से यह हादसा हुआ है। इसके बाद एंडरसन किसकी मेहरबानी से वापस जाने में कामयाब हुआ, यह सवाल अब भी बाकी है।
आप गौर करें तो पाएंगे कि जो आधी अधूरी सजा भोपाल की अदालत ने दी हैं वह सब भारतीय अभियुक्तों के खिलाफ हैं। केशव महिंद्रा जरूर यूनियन कार्बाइड इंडिया के चेयरमैन थे मगर 2002 में भारतीय उद्योग जगत की निस्वार्थ सेवा करने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित करने का फैसला किया था। खुद केशव महिंद्रा ने यह सम्मान वापस कर दिया था और कहा था कि जब तक मैं भोपाल के मामले में कलंक मुक्त नहीं हो जाता तब तक मुझे यह सम्मान लेने का कोई हक नहीं हैं। क्या वाजपेयी सरकार को भी पता नहीं था कि केशव महिंद्रा इतने बडे़ नरसंहार में मुख्य अभियुक्त हैं?
अब अर्जुन सिंह पर लौट कर आइए। उनके पुराने राजनैतिक शिष्य और कांग्रेस के सबसे वरिष्ठ महासचिव दिग्विजय सिंह जो खुद भी मध्य प्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं, कह रहे हैं कि अमेरिकी दबाव में केंद्र सरकार को यह फैसला लेना पड़ा होगा। जाहिर है कि वे राजीव गांधी को अनाड़ी और दबाव के सामने झुक जाने वाला मानते हैं। राजीव गांधी की सरकार में आंतरिक सुरक्षा का जिम्मा अरुण नेहरू के पास था और हर सरकारी फैसले में अरुण सिंह की बड़ी भूमिका होती थी, ये दोनों हमारे बीच मौजूद हैं और इनसे सवाल कोई नहीं कर रहा।
कायदे से अर्जुन सिंह के पास दिल्ली से नरसिंह राव या जिस किसी का फोन एंडरसन को छोड़ने और दिल्ली भेजने के लिए आया था, उसे खुद अर्जुन सिंह को समझाना चाहिए था कि मामला कितना गंभीर हैं और इसके मुख्य अभियुक्त को यों ही छोड़ देने के कितने भयानक परिणाम निकलेंगे? मध्य प्रदेश के सरकारी जहाज के पायलट तक कह रहे हैं कि उन्हें अगर पता होता कि उनके जहाज में एंडरसन को दिल्ली छोड़ा जाना है तो वे नौकरी छोड़ देते मगर ऐसा पाप नहीं करते।
सत्यव्रत चतुर्वेदी गलत समय पर गलत बात बोलने के लिए कुख्यात हैं और उन्हांनें तो सीधे कह दिया कि दिल्ली से कोई संदेश नहीं गया और जो फैसला हुआ वह अर्जुन सिंह ने ही किया था। दिग्विजय सिंह जो कह रहे हैं वह असल में राजीव गांधी पर सारी जिम्मेदारी मढ़ने जैसा आरोप है। मगर दिग्विजय सिंह भी तर्क की सीमा के बाहर नहीं जा रहे हैं। वे कहते है कि मैं उस समय भोपाल में नहीं था इसलिए मुझे पूरी जानकारी नहीं हैं मगर इस तर्क में भी एक पेंच है। दस साल तक मुख्ममंत्री रहने के बाद अगर कोई यह दावा करे कि उसे राज्य के ही नहीं, विश्व के इतिहास की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी के तथ्य नहीं पता तो यह बात आसानी से हजम होने वाली नहीं है।
भारत के एटॉर्नी जनरल की हैसियत से सोली सोराबजी ने राय दी थी कि धारा 304 के तहत एंडरसन के प्रत्यर्पण के पूरे आधार मौजूद हैं। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को जिसमें राम जेठमलानी जैसे महान वकील कानून मंत्री थे, इस मामले में राय लेने के लिए अमेरिका की ही एक कानूनी कंपनी मिली। इस कंपनी ने मोटी फीस ली और कह दिया कि जो आधार बताए गए हैं उन्हें देखते हुए तो एंडरसन का प्रत्यर्पण नहीं हो सकता। इस राय का मूल तत्व यह था कि एंडरसन अमेरिका में बैठे थे और भोपाल में दिन प्रतिदिन क्या हो रहा है इसकी उन्हें कोई जानकारी नहीं थी। इसी तर्क के आधार पर यह भी कहा जा सकता हेै कि भारत सरकार तो दिल्ली में बैठी थी और भोपाल में क्या हो रहा है उसे क्या पता।
इस कहानी का कोई अंत नहीं हैं। सारे अभियुक्त अपनी जिंदगी के आखिरी दौर में हैं। एंडरसन नब्बे का होने जा रहा है। केशव महिंद्रा 85 पार कर चुके हैं। शिवराज सिंह या पी चिदंबरम इस मामले को फिर अदालत में ले जाएंगे और फिर फास्ट ट्रैक अदालतों ने मामला चले तो भी चार पांच साल से पहले तक नहीं होने वाला और एंडरसन और बाकी अभियुक्त कोई अमृत खा कर नहीं आए हैं जो इस पूरे मुकदमे के अंत तक दुनिया में बने ही रहेंगे। उनकी मृत्यु के साथ भोपाल के इस नाटक का अंत नहीं होने वाला।
बहुत से बहुत हम यह सबक सीख सकते हैं कि कोई भोपाल फिर से घटित नहीं हो पाए और अगर हो जाए तो न्याय के लिए 26 साल तक इंतजार नहीं करना पड़े।
श्री आलोक तोमर प्रखर जुझारू पत्रकार हैं इन्हें आप जनादेश पर पढ सकते हैं
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